: १४ : आत्मधर्म : चैत्र :
आवी स्पष्ट भिन्नता जाणीने हे जीव! तुं आत्मभावना कर, ने देहममता छोड–
अरे, हुं तो आत्मा छुं, आ बूढापो–रोग के मरण ए तो शरीरमां छे, हुं तो कांई
शरीरना नाशथी मरतो नथी, हुं तो शरीरथी भिन्न सदा टकवानो छुं–एवुं भान करीने
हे जीव! तुं मरणनो भय छोड, ने आतमरामने ज ध्याव. आत्माना ध्यानथी तारा
भवनुं अवसान थई जशे–अर्थात् भवनो अंत थशे, ने अविनाशी एवुं सिद्धपद
प्रगटशे.
अरे आत्मा! एकवार तो शरीरनो पाडोशी थईने आत्मानो अनुभव कर.
बहारनी कोई प्रतिकूळता आत्मामां गरी नथी जती, माटे तेनो भय मत कर, तारो
चैतन्यकिल्लो तेमां परनो प्रवेश नथी, तेमां रोगादि प्रतिकूळतानो प्रवेश नथी, तेमां
मरणनो प्रवेश नथी; एमां तो आनंद वगेरे निजनिधान भर्या छे. आवा निजभावने
कदी न छोडे ने परभावने कदी न ग्रहे एवो आत्मस्वभाव छे. एनुं ज्ञान कोई
बाह्यपदार्थ वडे नथी थतुं, अंतरना अतीन्द्रियज्ञान वडे ते जणाय छे.
जीवना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव जुदा, ने शरीरना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव जुदा; बंने
एकबीजामां प्रवेशता नथी, एकबीजाने स्पर्शता नथी, शरीरना क्षेत्रमां आत्मा नथी
प्रवेश्यो. आत्मा तो पोताना असंख्य अरूपी प्रदेशोमां ज रह्यो छे. आम निजात्माने
जाणीने तेना ध्यानमां तत्पर था; तेना ध्यानमां समरसी भावरूप अतीन्द्रिय सुखनो
अनुभव छे.
शास्त्रो कहे छे के भाई! तारा निजस्वरूपने देखवा माटे हजार सूर्य जेवो थई
जा..... ने परने देखवानी तारी आंख बंध करीने निजस्वरूपने देख. अतीन्द्रिय ज्ञानरूप
चैतन्यसूर्यथी तारा आत्मस्वरूपनुं अवलोकन करतां तने परम