Atmadharma magazine - Ank 258
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : आत्मधर्म : १७ :
सुंदर वस्तु पासे खराब वस्तु शोभती नथी, जेम चक्रवर्तीना सिंहासनमां जोडे भीखारी
शोभतो नथी, तेम चैतन्यना स्वानुभवनो अत्यंत सुंदर आनंद के जे आनंद चक्रवर्तीना
के ईन्द्रना वैभवमांय नथी, ते आनंदना धामनी साथे अशुचीरूपी विकल्प शोभतो
नथी, एटले के स्वानुभवमां ते विकल्प होतो ज नथी. अरे, अनुभव साथे जे विकल्प
शोभतो नथी ते विकल्पनुं अवलंबन लईने अनुभव करवा मांगे–तेने तो स्वानुभवना
स्वरूपनी ज खबर नथी. आ अनुभव परनी सहायथी रहित छे, विकल्पनी पण सहाय
तेमां नथी. अनुभवदशा वखते वचन ने विकल्प सहेजे ज बंध थई जाय छे,...उपयोग
बहारथी खेंचाईने अंतरमां वळी गयो छे ने आनंदने अनुभववामां ज मग्न छे.
आनंदस्वभावमां उपयोगनी एकता ने विकल्पथी उपयोगनी पृथकता एनुं नाम
निर्विकल्पता छे; आवी निर्विकल्पतामां अतीन्द्रिय आनंदनो भोगवटो होय छे. आवा
अनुभव टाणे विकल्प होता नथी, एटले कह्युं के त्यां विकल्प शोभता ज नथी.
अहा अत्यंत सुंदर चैतन्यवस्तु ते तो स्वानुभवथी ज शोभे छे, ते कांई
विकल्पथी नथी शोभती. चैतन्यनो स्वानुभव परसहायथी निरपेक्ष छे. विकल्पनी
सहाय लेवा जाय तो शुद्धआत्मा स्वानुभवमां न आवे. शुद्धआत्मा कहे छे के ज्यां हुं
त्यां विकल्प नहि. स्वानुभव ते प्रत्यक्ष ज्ञानरूप छे, ने सम्यकत्व तेनी साथे
अविनाभावी छे.
अहा, आवी स्वानुभवनी वात सांभळतां पण मुमुक्षुने पहेलां तो तेनो उत्साह
जागे...तेनो महिमा आवे ने विकल्पनो महिमा ऊडी जाय.–एटले तेना वीर्यनो उल्लास
विकल्पथी खसीने स्वानुभव तरफ वळे. पण प्रथम जेने स्वानुभवनी वात रुचे पण
नहि तेनो पुरुषार्थ स्वानुभव तरफ कयारे वळे?
अरे, भगवान तीर्थंकरदेवनी सभामां आवी स्वानुभवनी वात ईन्द्रो पण
उत्साहथी सांभळे छे ने साथे सिंह–वाघ जेवा कोई तीर्यंचो पण आ वात सांभळतां
अंतरमां ऊतरीने स्वानुभव करी ल्ये छे. जुओेने, महावीर भगवानना जीवने
सिंहपर्यायमां मुनिओए सम्यकत्वनो उपाय संभळाव्यो ने कह्युं के “अरे जीव! तुं
भरतक्षेत्रनी आ चोवीसीनो चरम तीर्थंकर थवानो छे एम भगवाननी वाणीमां अमे
सांभळ्‌युं छे, ने आ शुं? तुं आवा क्रूरभावमां पडयो छे? अरे, तारुं निजपद संभाळ!
ने सम्यकत्वने ग्रहण कर!” मुनिनां वचन सांभळतां ज सिंहनो आत्मा जागी
ऊठयो...अरे, मने देखीने मनुष्यो तो भागे, तेने बदले आ तो उपरथी नीचे ऊतरी
मारी सामे ऊभा छे ने मने उपदेश आपीने निजपद बतावे छे.–एम समजी टगटग
मुनिओ सामे जोई रह्यो...आंखमांथी आंसुनी धारा साथे मिथ्यात्व पण बहार नीकळी
गयुं ने तत्क्षण ते सिंह, सम्यकत्व पाम्यो. जेवो