बहार छे, एटले के अभूतार्थ छे, एटले के जूठा छे.
रागादि भावो तो अनुभवमां नथी, ए तो जीवना स्वरूपथी क््यांय आघा छे, ने
अंदरना नवतत्त्व संबंधी के आत्मासंबंधी जे सूक्ष्म विकल्पो ते पण जीवस्वरूपना
अनुभवथी बहार छे. ‘प्रमाणथी आत्मा आवो, शुद्धनयथी आवो, तेना द्रव्य–गुण–
पर्याय आवा, तेना उत्पाद–व्यय–धु्रव आवा’–एम विचार काळे जे विकल्पो हता त्यां
सुधी शुद्धआत्मा साक्षात् अनुभवमां आव्यो न हतो, ने ज्यां उपयोगने रागमांथी
खसेडीने अंतरस्वरूपमां वाळीने तेनो साक्षात् अनुभव कर्यो त्यां ते कोई विकल्पो रह्या
नहि, ते विकल्पो अभूतार्थ होवाथी शुद्धवस्तुना अनुभवमां तेनो प्रवेश थयो नहि.
शुद्धवस्तुमां तो विकल्प नथी, ने तेना अनुभवरूप पर्यायमां पण विकल्प नथी. आवी
अनुभवदशाना जोरे साधक केवळज्ञान लेशे. वच्चे विकल्प आवशे तेना वडे कांई
केवळज्ञान नहि थाय; मोक्षनो मार्ग तो शूरवीरोनो छे; विकल्पमां रोकाई जाय ते आवा
मार्गने साधी शके नहि.
अभूतार्थ समजीने तेनुं लक्ष छोडतां, निर्विकल्प उपयोगमां वस्तुनो जे स्वाद आवे तेनुं
नाम अनुभव छे. आ कळश उपरथी पं. बनारसीदासजी समयसार नाटकमां कहे छे के–
रसस्वादत सुख ऊपजे अनुभव याको नाम.
अनुभव छे. आवो अनुभव ते मोक्षनो मार्ग छे. ते अनुभवनी अंदर प्रमाणना नयना
के निक्षेपना विकल्प नथी.
छे, एटले के वस्तुस्वरूपनो निर्णय करवा जाय त्यां वच्चे गुणगुणीभेद आव्या वगर
रहेतो नथी; ‘हुं ज्ञानस्वरूप छुं” ईत्यादि विचारणामां पण गुणगुणीभेद छे, ए वच्चे
आव्या सिवाय बीजो कोई