Atmadharma magazine - Ank 258
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : आत्मधर्म : २३ :
वि...वि...ध...व...च...ना...मृ...त
आत्मधर्मनो चालु विभाग: लेखांक–७:
(विविध वचनामृतनो आ विभाग प्रवचनोमांथी, शास्त्रोमांथी
(१३१) श्रुतना संस्कारथी बुद्धिमां अतिशय प्राप्त थाय छे
जेम आंख बहार देखी शकाता पदार्थोने ज देखे छे, पोताना मुखने देखी शकती
नथी पण दर्पणना निमित्ते तेने पण देखी शके छे; तेम मति एटले के ईन्द्रिय अने
मनद्वारा थतुं ज्ञान ते जो के द्रष्ट ईन्द्रिय अने मनना विषयरूप पदार्थोने ज जाणनार छे
तोपण शास्त्र अर्थात् आप्तभगवानना वचनरूपी दर्पण वडे उत्पन्न द्रष्ट–अद्रष्ट
पदार्थसंबंधी ज्ञानथी अतिशयने पामीने ते ईन्द्रिय अने मनना अविषयभूत एवा
अद्रष्ट अतीन्द्रिय पदार्थने पण प्रकाशित करे छे. (अनगारधर्म पृ. ४२)
(१३२) विनय
ज्ञानादिनी अपेक्षाए वृद्ध एवा श्रेष्ठ पुरुषोनी साथे उद्धतताने छोडीने जे
विनीततानो व्यवहार करे छे ते पुरुषने लोकोत्तर–महिमा सदाय प्राप्त थाय छे. ऊंचा
(श्रेष्ठ) कूलपर्वतोनुं उल्लंघन समुद्र नथी करतो तेथी ज ते कूलपर्वतोमांथी वहेती
गंगादिक नदीओ ते समद्रने पूर्ण करे छे तेम उत्तमपुरुषोना हृदयमांथी वहेती
श्रुतज्ञानगंगा विनयवान शिष्यना समुद्रने उल्लसावे छे.
(१३३) सीताजीनो सन्देश
सीताजीने घोर वनमां छोडीने पाछो फरी रहेल सारथि ज्यारे सीताजीने पूछे छे
के आपने रामचंद्रजीने कंई कहेवुं छे? त्यारे बे घडी स्तब्ध बनी गयेला सीताजी तरत
धर्मनुं स्मरण करीने कहे छे के–
“अरे हो वीरा! रामजी सुं
कहियो यूं बात,
लोकनिंदा ते हमको छांडी,
धरम न छोडो गात.
पाप कमाये सो हम पाये,
तुम सुखी रहो दिनरात,
द्यानत सीता थिर मन किनो
मंत्र जपे अवधात.”
(१३४) धन्य मुनिराज
हे मोक्षसाधक मुनिवरा...
निज स्वरूपमां झुली रह्या;
भव–भोगथी वैराग्य धारी,
सिद्धपद साधी रह्या;
रत्नत्रयधारक प्रभुजी,
धन्य तारुं जीवन छे,