: २ : आत्मधर्म : चैत्र :
साधक कई रीते
आत्माने साधे छे?
अनादिना भवदुःखथी थाकीने परमात्मस्वरूप समजवा माटे जे
उत्सुक छे तेने तेनुं स्वरूप समजावीने संतो कहे छे के हे वत्स!
शुद्धात्माना आवा उपदेशनुं अत्यंत दुर्लभपणुं समजी, तेनी प्राप्तिना
आ उत्तम अवसरमां तुं प्रमाद छोडीने जागृत था....ने तारा
शुद्धात्माने अंर्त प्रयत्नवडे अनुभवमां ले.
(परमात्मप्रकाश–प्रवचनो)
आ जीव अनादिकाळथी संसारभ्रमणमां दुःखी थई रह्यो छे. केम दुःखी थयो?
पोताना शुद्ध परमात्मस्वरूपने नहि जाणवाथी दुःखी थयो; हवे ए दुःखोथी छूटवा माटे
परमात्मस्वरूपने जाणवा जे उत्सुक थयो छे एवा जीवने परमात्मानुं स्वरूप समजाववा
माटे आ–शास्त्र छे. आ शास्त्रमां शुद्धात्माना उपदेशनी प्रधानता छे. शुद्धात्मानो आवो
उपदेश प्राप्त थवो जीवने बहु ज दुर्लभ छे. भाई, शुद्धात्माना आवा उपदेशनुं अत्यंत
दुर्लभपणुं समजी, तेनी प्राप्तिना उत्तम अवसरमां तुं प्रमाद छोडीने जागृत था.....ने
तारा शुद्धआत्माने अंतरप्रयत्न वडे अनुभवमां ले.
जो के संसारमां तो एकेन्द्रियपणामांथी बेइंद्रियपणुं थवुं अनंत दुर्लभ छे.
एकेन्द्रियजीवो तो अनंतानंत छे, ने त्रसपर्यायवाळा जीवो तो एना अनंतमा
भागे (असंख्याता ज) छे. आ रीते एकेन्द्रियमांथी बेईन्द्रिय वगेरे थवुं दुर्लभ छे,
संज्ञीपंचेन्द्रियपणुं एनाथी पण दुर्लभ छे; तेमां पर्याप्ति पूरी थवी मुश्केल छे, घणा
जीवो जन्म्या पहेलां गर्भमां ज मरी जाय छे. पर्याप्ति मळे, मनुष्यपणुं मळे, सारूं
कूळ ने सारूं क्षेत्र मळे–ए बधुं पण दुर्लभ छे. जैनधर्म मळवो, ज्ञानी सत्पुरुषनो
संग मळवो ने शुद्धात्मानो उपदेश मळवो–ए बधुं पण उत्तरोतर दुर्लभ छे.–दुर्लभ
होवा छतां आटलुं तो जीव पूर्वे पामी चूकेलो छे, ए पुण्यना फळथी मळे छे एटले
तेनी के पुण्यथी अपूर्वता नथी. एटलुं बधुंय मळ्या पछी पण अंतरमां शुद्ध
आत्मानी अनुभूति सहित सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते अपूर्व दुर्लभ छे, ने एनाथी
ज मोक्षमार्गनी प्राप्ति थाय छे. सम्यग्दर्शन करतांय सम्यक्चारित्रनी दुर्लभता छे.–
परंतु शुद्धात्माने उपादेय करवाथी ज सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे. माटे
शुद्धात्मस्वरूपने ज उपादेय करवुं ते तात्पर्य छे.