: ४ : आत्मधर्म : चैत्र :
नथी आवती, अथवा एक केरीमांथी बीजी केरी आवती नथी, तेम आखुं द्रव्य ते
निर्मळपर्यायोनो आंबो छे; तेमांथी नवी नवी निर्मळपर्यायो आव्या करे छे. पण पूर्वनी
नानी पर्याय (साधकभाव) मांथी मोटी पर्याय (साध्य पर्याय आवती नथी, अथवा
एक पर्यायमांथी बीजी पर्याय आवती नथी. एटले पर्यायसन्मुख द्रष्टि न राखतां
आखा द्रव्यने द्रष्टिमां लेवुं, तेने ज श्रद्धामां–ज्ञानमां उपादेय करीने तेमां एकाग्रता
करवी; तेमां एकाग्र थतां साध्यपर्याय खीली जाय छे. शुद्ध जीवतत्त्व त्रिकाळ छे, तेना
आश्रयमां संवर–निर्जरा नवा प्रगटे छे. त्रिकाळ द्रव्य ने निर्मळ–पर्याय ए प्रमाण वस्तु
छे. तेमांथी निर्मळ पर्यायनो भेद पाडीने तेने जीव कहेवो ते व्यवहार छे; शुद्ध
चैतन्यद्रव्यने जीव कहेवो ते निश्चय छे. ते शुद्ध द्रव्यने द्रष्टिमां लईने तेमां पर्याय लीन
थतां संवर–निर्जरा–मोक्षपर्याय खीली जाय छे. माटे निर्मळपर्यायनुं परमार्थ साधन शुद्ध
द्रव्य ज छे–ए परमार्थ छे. पूर्वनी निर्मळपर्यायने साधन कहेवुं ते व्यवहार छे. परमार्थ
साधनरूप शुद्धवस्तुनी सन्मुख थईने परिणति तेमां लीन थई त्यां साध्य–साधक बंने
एक थईने परिणम्या, तेमनी वच्चे भेद न रह्यो. त्यां बीजा कोई साधन बहार
शोधवानुं न रह्युं.–आवी दशा थाय त्यारे आत्माने साध्यो कहेवाय. आ सिवाय बीजी
रीते आत्मा सिद्ध थतो नथी, स्वानुभवमां आवतो नथी.
आराधनानी प्रेरणा
अरे, जीव! देह तो मुदत पूरी थतां तने छोडशे, पण तुं
सामेथी मोह छोडीने देहनी प्रीति छोड. आवो अशुचीनो पिंड
क्षणभंगुर देह तने केम वहालो लागे छे? ने परम सुखमय
पवित्र चैतन्यस्वभाव तने केम वहालो नथी लागतो? एकवार
आत्माने वहालो कर, ने जगतनुं वहाल छोड (जगत ईष्ट
नहीं आत्मथी, मध्य पात्र महाभाग्य) तारो चैतन्यदेव ताराथी
जुदो क््यांय देशदेशांतरमां नथी, तारो देव ताराथी जराय दूर
नथी, ए तारामां ज छे. अंतरद्रष्टिथी प्रयत्न करीने देख तो
तारामां ज बिराजमान शाश्वत चैतन्यदेव तने स्पष्ट देखाशे.
ए ज भगवान छे, ए ज महिमावंत छे, ए ज परम एटले
उत्कृष्ट होवाथी परमात्मा छे; ए ज दिव्य चैतन्य शक्तिवाळो
देव छे. दर्शन–ज्ञान–चारित्र वडे एनी ज सेवा ने आराधना
कर. एनी आराधनाथी तुं भवसमुद्रना तीरने पामीश.
अंतर्मुख थईने चैतन्यना ध्यान वडे मोक्षसुख पमाय छे.
(प्रवचनमांथी)