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जीवत्व, प्रभुत्व, वीर्य, सुख, स्वच्छता, विभुता, विकास, सत्पणुं, उत्पाद–व्यय–
ध्रौव्यपणुं, अकर्तृत्व, स्व–कर्तृत्व वगेरे अनंतशक्तिओ पोतपोताना निर्मळभावो
सहित उल्लसे छे. आवा अनेकान्तमय ज्ञानस्वरूपे आत्माने ओळखवो ते
जैननीति छे. एनाथी विरुद्ध (एटले रागादि विकारवाळो) स्वभाव मानवो ते
अनीति छे. जैनी नीति कहो के मोक्षमार्ग कहो; अनीति कहो के मिथ्यात्व कहो के
संसारमार्ग कहो. विकारने आत्मानुं स्वरूप मानतां आत्माना गुणोनी निर्मळता
हणाय छे, ते हिंसा छे; ने ते हिंसामांथी आत्माने सम्यग्दर्शनादि वडे बचाववो,
तथा आत्मगुणोनी रक्षा करवी ते आत्मदया छे.–आवी दया ते धर्मका मूल है.
एटले सम्यक्त्वादि निर्मळपर्याय ते ज धर्म छे.
तेना ज्ञातापणे वर्ते छे पण कर्तापणे वर्ततुं नथी. बंने पोतपोतानी धारामां जुदुं वर्ते छे.
ज्ञानभावमां धर्मी तन्मय वर्ते छे, रागादिभावमां तन्मय थतो नथी.