: वैशाख : आत्मधर्म : ९ :
ज्ञा न नो वि श्वा स
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(मुंझवणथी छूटवा शुं करवुं? –ज्ञाननो विश्वास)
एक भाई प्रतिकूळताथी मुंझाईने कहे के साहेब, आ प्रतिकूळता आवी तेनाथी
मुंझवण थाय छे. आ मुंझवणथी छूटवा शुं करवुं?
गुरुदेव कहे: भाई, ज्ञाननो विश्वास राखवो ज्ञान तो जाणे के ज्ञान ते खेद करे?
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे तेनो विश्वास करवो के हुं तो ज्ञान छुं; ज्ञानमां
प्रतिकूळता केवी? ने ज्ञानमां खेद केवो? ज्ञानमां तो जाणपणुं होय, आवा
ज्ञाननो विश्वास राखे तेने प्रतिकूळतामांय मुंझवण थाय नहीं; केमके प्रतिकूळता ज्ञानमां
प्रवेशती नथी, ए तो ज्ञानथी बहार ज रहे छे. ज्ञानमां भवदुःखने पण मटाडवानी
ताकात छे त्यां बीजा रोगनी शी वात?
रोग आव्यो, तो शुं ते ज्ञानमां प्रवेशी गयो छे?–ना; ते बहार रहीने ज्ञानमां
जणाय छे; माटे प्रतिकूळता ज्ञानमां नथी. आवा ज्ञाननो विश्वास राखवो; ते ज्ञान स्वयं
समाधानरूप–सुखरूप छे.
ज्ञानमां प्रतिकूळता ने दुःख नथी.
ज्ञानमां समाधान ने शांति छे.
आवा ज्ञाननी भावना ते ज मुंझवण टाळवानो मार्ग छे.
आवी ‘ज्ञानभावना’ बाबत अगाउ आत्मधर्म अंक २पपमां आव्युं हतुं:
“ज्यारे संसारमां हजारो प्रकारनी प्रतिकूळता क््यारेक एक सामटी आवी पडे,
क््यांय उपाय न सूझे, ते प्रसंगे मार्ग शुं?
एक ज मार्ग.............. ‘ज्ञानभावना’
‘ज्ञानभावना’ क्षणमात्रमां बधी मुंझवणने खंखेरी नाखीने हितमार्ग सुझाडे
छे, ने कोई अलौकिक धैर्य तथा अचिंत्य ताकात आपे छे.”
ज्ञानभावना ए सर्व दुःखोनी परम औषधि छे.