Atmadharma magazine - Ank 259
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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वखत वीताववो ए मने उपाधिरूप लागे छे, मारुं हृदय निवृत्तिने
झंखी रह्युं छे.
त्यारे हीराचंदजी महाराजना मुखमांथी भद्रभावे वचन नीकळी
गया के–कानजी! तने आ बधुं न गोठतुं होय तो वस्त्र–पात्र वगरना
साधु शोधी काढजे!
एमना आ वचनमां तो भविष्यना भणकार हता....भाविनी
आगाही हती. अंते तो ए आगाही साची ज पडी. थोडा ज वखतमां
ए वैरागी आत्माए खरेखर वस्त्रपात्र वगरना दिगंबर साधु शोधी
कुंदकुंदाचार्य आदि दिगंबर संतोना ए परम भक्त बन्या. तेओ
दिगंबर मुनिदशानो महिमा करतां द्रढतापूर्वक कहे छे के दिगंबर
जैनधर्म ए ज परमसत्य धर्म छे. बाह्य तेमज अभ्यंतर संपूर्ण
निर्ग्रंथता विना कोई जीव मोक्ष पामी शके नहि. घणीवार
मुनिदर्शननी उर्मिथी तेओ कहे छे के अहा, कोई मुनि आकाशमार्गे
आवीने दर्शन करावे तो धन्य घडी ने धन्य भाग्य! अध्यात्मानुं
श्रवण करावनारा कोई संत–मुनि मळे तो एमना चरण पासे बेसीने
आ वात सांभळीए.
आजे तो मुनिभक्त आ महात्मा दिगंबर जैनधर्मना परम
प्रभावक बन्या छे.