अविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः।
मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते–
सर्वतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः।।३।।
कहेला शुद्ध आत्मस्वरूपना वारंवार घोलनथी मारी परिणति परमविशुद्ध थाओ. अमुक
शुद्धि तो थई छे ने उत्कृष्टशुद्धि थाओ. जुओ, आ समयसारना टीकाकारनी भावना;
टीका वखते विकल्प तो छे, पण भावना विकल्प तरफ नथी ढळती, भावना तो शुद्धात्मा
तरफ ज ढळे छे. ‘समयसार’ ने नमस्कार करीने एटले शुद्धात्मा तरफ परिणतिने
वाळीने मंगल कर्युं छे. हवे मारी पर्याय शुद्धात्मा तरफ ज उग्रपणे ढळ्या करो. श्रुतनी
टीका वखते अंतरना भावश्रुतमां वारंवार शुद्धात्माना घोलनथी परिणति शुद्ध थती ज
जाय छे.
थाय? –जरूर थाय ज. आ शास्त्र समस्त पर प्रत्येथी वैराग्य उपजावे छे, क््यांय पण
पराश्रयने के रागने नथी पोषतुं, शुद्धात्मानुं परमार्थ स्वरूप बतावीने स्वाश्रय करावे
छे, तेथी तेना अभ्यासवडे भावश्रुतनी निर्मळता थती जाय छे, वीतरागतानी वृद्धिवडे
परिणति शुद्ध थती जाय छे.