: २२ : आत्मधर्म : वैशाख :
जे जीवे केवळज्ञाननी प्रतीत करी, सम्यग्दर्शन कर्युं ते जीवने
अर्धपुद्गलपरावर्तन करतां वधु संसारस्थिति होय ज नहि; एनो संसार मर्यादित थई
गयो. सम्यक्त्वने योग्य जीव थयो त्यां काळलब्धि पाकी गई–एम कहेवाय. आ रीते
पुरुषार्थ अने काळलब्धि भेगां ज छे. जेना ज्ञानमां केवळज्ञानना सामर्थ्यनो निर्णय
थयो तेनी अल्प काळमां मुक्ति केवळज्ञानमां नोंधायेली ज छे. जे ज्ञाने केवळज्ञाननो
निर्णय कर्यो ते ज्ञान रागथी जुदुं पडीने जिनस्वभाव तरफ वळ्युं,–तेने सम्यक्त्व
होगा...होगा ने होगा; द्रव्यस्वभाव तरफ झूके त्यां पर्यायमां सम्यक्त्वनी काळलब्धि
आवी ज जाय. आना सिवाय बीजा करोडो उपाय बहारमां करे तो पण सम्यक्त्व थाय
नहि. सम्यक्त्व ए सहज वस्तु छे, बहारना यत्न वडे ते सधाती नथी. विकल्परूप
प्रयत्न वडे स्वानुभव थतो नथी, स्वानुभव सहज छे एटले परिणति स्वरूपमां प्रवेशी
गई, त्यां पुरुषार्थनो पण विकल्प नथी.–आवी सहज परिणतिरूप सम्यक्त्वछे, एम
आशय समजवो.
आत्मामां मन केम परोवाय?
एक भाईए पूछयुं आत्मानी वात सांभळती वखते तो
सारी लागे छे पण तेना विचारमां मन परोवातुं नथी, तेनुं शुं
कारण?
उत्तरमां गुरुदेवे कह्युं के जो खरेखरी रुचि होय तो तेमां मन
केम न परोवाय? संसारना विचारमां मन केम परोवाय छे?
सांभळती वखते पण जो खरेखर आत्मस्वरूप लक्षगत करीने
तेनो उत्साह आवे तो उपयोग तेमां लाग्या वगर रहे नहि.
आत्माने जाणवानी खरेखरी लगन जागे तेने तेमां वारंवार
उपयोग लागे. एना विचारमां मन नथी लागतुं तो पोतानां
परिणाममां खामी छे. उपयोगने पराणेपराणे बळपूर्वक परथी
पाछो वाळीने स्वतत्त्वमां, चिंतनमां जोडवानो वारंवार उद्यम
करवो जोईए. वारंवार अंतरना ऊग्र अभ्यासवडे चैतन्यमां
उपयोग जरूर लागे छे.