अनादिथी छे, मिथ्याद्रष्टि पण अनादिथी छे ने सम्यग्द्रष्टि पण अनादिथी छे, अज्ञानी
पण छे ने केवळज्ञानी पण छे; एम बधा प्रकारना जीवो जगतमां सदाय रहेवाना छे.–
कोई जीव आखा जगतमांथी अज्ञाननो ने अशुद्धतानो अभाव करवा मागे तो तेम न
करी शके, पण पोते पोताना आत्मामांथी अज्ञान अने अशुद्धता मटाडीने केवळज्ञान अने
सिद्धपद प्रगट करी शके.
अध्यात्मपद्धत्ति ते मोक्षमार्गरूप छे, ते शुद्धभाव रूप छे. आ शुद्ध भावरूप अध्यात्म–
पद्धत्तिमां आत्मानो अधिकार कह्यो, पण आगम पद्धत्तिमां आत्मानो अधिकार न कह्यो,
केम के ते आत्माना स्वभावरूप नथी पण विभावरूप छे. अहीं ‘आगमपध्धति’ कही
तेमां ‘आगम’ नो अर्थ सिध्धान्तरूप शास्त्र न समजवो. पण आगम–पध्धत्ति एटले
अनादिथी चाली आवेली परंपरा; अथवा आगम एटले आगंतुक भावो. विकारी
भावो छे ते नवा आगंतुक छे, ते स्वभावमां नथी पण कर्मनिमित्ते पर्यायमां नवा नवा
उत्पन्न थयेला छे, ने अनादिथी तेनो प्रवाह चाल्यो आवे छे. विकार अने तेना
निमित्तरूप कर्म ए बंनेनो प्रवाह अनादिथी चाल्यो आवे छे तेनुं नाम आगमपध्धति
छे. ने जीवमां जे नवी अपूर्व अध्यात्मदशा एटले के शुध्धपर्याय प्रगटे ते
अध्यात्मपध्धति छे. आ बंने प्रकारना भावो जगतमां सदाय वर्तता ज होय छे. ए
बंनेनुं हवे विवेचन करे छे–
बंने परिणाम आगमरूप स्थाप्या.
सुख–वीर्य आदि अनंत गुणपरिणाम,–ए बंने परिणाम अध्यात्मरूप जाणवा.