: वैशाख : आत्मधर्म : २प :
जीवनी पर्यायमां केवा केवा प्रकारना भावो थाय छे ते समजवानी आ वात छे, एटले
ध्यान राखीने समजवा जेवी छे,
आत्मानी परिणतिमां अशुद्धता अनादिथी छे, ते स्वभावगतभाव नथी पण,
प्रश्न:– जे द्रव्यकर्मनी परंपरा छे ते तो पुद्गलनी पर्याय छे, छतां अहीं तेने
उत्तर:– ए पुद्गलनी पर्याय छे ए वात साची, परंतु जीवना अशुद्धभावनी
साथे तेने संबंध छे, जीवना अशुद्धभावनी साथे मेळवाळुं तेनुं परिणमन छे तेथी अहीं
ते कर्म पद्धत्तिने पण जीवना भाव कही दीधा छे. जीव साथे जेने संबंध नथी एवा बीजा
अनंता परमाणुओ जगतमां छे, पण तेनी अहीं वात नथी. अहीं तो जीवना परिणाम
साथे जेने निमित्त नैमित्तिक संबंध छे एवा पुद्गलोनी वात छे. लाकडुं–घर–शरीर
वगेरेनो संबंध तो जीवने क््यारेक होय ने क््यारेक न पण होय, परंतु संसारमां जीवने
कर्मनो संबंध तो सदाय होय ज छे; ए संबंध बताववा तेने पण जीवनो भाव कह्यो छे–
एम समजवुं.
आत्मद्रव्यना अने तेना ज्ञानादि गुणोना जे शुद्ध परिणाम छे ते
द्रव्यना शुद्ध परिणाम ते द्रव्यरूप शुद्धचेतनापद्धत्ति छे एने ज्ञान–श्रद्धा–चारित्र
आगमपद्धत्ति संसारनुं कारण छे, अध्यात्मपद्धत्ति मोक्षनुं कारण छे. जेनाथी
कर्म बंधाय ते बधाय भावो आगमपद्धत्तिमां जाय छे,–व्यवहार रत्नत्रयमां जे
शुभराग छे ते पण आगमपद्धत्तिमां जाय छे; शुद्धचेतनारूप जेटला भावो छे ते
अध्यात्मपद्धत्तिमां