परिणमन थाय छे, ते अनियत छे, असंख्यप्रदेशनो कोई नियत आकार नथी पण
अनेक आकारो बदले छे; आवुं अनियतपणुं लक्षमां लेतां शुद्धजीवतत्त्व अनुभवमां नथी
आवतुं. शुद्ध चेतनास्वरूप छे ते जीवतत्त्वनो नियत–एकरूप रहेनार भाव छे; दर्शन–
ज्ञान–चारित्र वगेरे गुणोनो भेद छे ते विशेषभाव छे, ते गुणभेदना आश्रयद्वारा पण
शुद्धजीववस्तु अनुभवमां न आवे. ए विशेषो रहित एटले गुणभेदना विकल्पो रहित
शुद्धजीववस्तु छे. रागादिक उपाधिभावो छे ते संयुक्तभाव छे. अहीं कर्मथी
संयुक्तपणानी वात न लीधी, पण परभावथी संयुक्तपणानी सूक्ष्म वात लीधी, एवुं
संयुक्तपणुं शुद्ध जीववस्तुना अनुभवमां आवतुं नथी. जे बद्ध–स्पष्ट आदि
विभावपरिणामो कह्या ते संसारअवस्थायुक्त जीवोने अवस्थामां छे, पण शुद्ध
जीवस्वरूपनी स्वानुभूतिमां तेनो अभाव छे. स्वानुभूतिमां ते परभावो प्रवेशता नथी;
ते तो उपर ने उपर बहार ज रहे छे. ज्ञानगुणरूप शुद्धजीव तो त्रिकाळगोचर छे,
त्रणेकाळ शुद्धस्वरूपे रहेनार छे, ते परवस्तुने तो स्पर्श्यो नथी, ने परभावने य ते
अडयो नथी. शुद्धस्वभाव तो विकारने स्पर्श्यो नथी, ने ते स्वभावना अनुभवरूप
पर्याय पण ते विकारभावोने स्पर्शती नथी.–माटे हे जीव! तारे सम्यक्त्व करवुं होय,
शुद्ध वस्तुनो अनुभव लेवो होय तो, ए पर्यायना विभावोनी द्रष्टि छोडीने आवा
स्वभावनी सन्मुख था. शुद्ध जीवना स्वरूपना अनुभवमां जे पर्याय वळी ते पर्याय
समस्त परभावोथी भिन्न छे. चोथा गुणस्थाने शुद्ध आत्मानी आवी अनुभूति थाय छे.
चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने अनुभूतिमां सर्व परभावनो अभाव छे.
महिमावंत चैतन्यसूर्य छे तेने नथी देखतो, ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. भाई, त्रिकाळने
भूलीने एकला क्षणिक विकार जेटली ज वस्तु तें मानी! पण ए विकार कांई
त्रिकाळगोचर नथी; मोक्षदशा थतां तेनो सर्वथा अभाव थाय छे,–एटले अत्यारे ज
शुद्धवस्तुमां तेनो अभाव छे–एम तुं शुद्धद्रष्टिथी शुद्धवस्तुने अनुभवमां ले....तो ज
सम्यग्दर्शन थाय. सम्यग्दर्शन थतां पर्यायमांथी पण परभाव छूटवा मांडया. स्वभाव
तरफ वळेली पर्यायमां परभावो छे ज नहि. आम पर्यायमां पण शुद्धता अनुभवाय
त्यारे जीववस्तुना शुद्धस्वरूपने जाण्युं कहेवाय. शुद्धस्वरूपने जाण्युं ने पर्यायमां जराय
शुद्धता न आवी–एम बने नहि. जे मोक्षमां नथी ते जीवना शुद्धस्वरूपमां नथी;–आ
रीते आत्माना शुद्धस्वरूपनो निर्णय करीने, हे जगतना जीवो! तमे तेनो अनुभव करो.