र्यधंतः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्यमोहं हठात्।
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते धु्रवं
नित्यं कर्मकलंकपंकविफलो देवः स्वयं शाश्वतः।।१२।।
वडे अशुद्धतारूपी कीचडथी सर्वथा भिन्न थाय छे. जुओ तो खरा, आ आत्माना
अनुभवनो महिमा! के जेनो अनुभव थतां ज चारगतिमां भ्रमण अटकी जाय छे ने
धु्रव–स्थिर एवी स्वभावदशाने पामे छे; स्वानुभवनुं उत्कृष्ट फळ सिद्धदशा छे.
आत्मानो अनुभव करतां जे तेना स्वभावमां छे ते पर्यायमां पण व्यक्त थाय छे.
अनुभवमां आवतो भगवान शुद्धआत्मा पोते देव छे, पोते दिव्यमहिमावाळो देव छे,
तेथी त्रणलोकथी पूज्य छे. त्रणलोकमां जेटला मोटा पुरुषो छे–ज्ञानीओ धर्मात्मा छे
तेओ सर्वे आ चैतन्य स्वभावने पूजनीय–आदरणीय समजे छे, माटे ते देव छे, एनो
दिव्य महिमा छे; ते पोते शाश्वत छे. आवा महिमावाळो आत्मा स्वानुभवमां प्रगट
थाय छे.
नहि.