: ४२ : आत्मधर्म : वैशाख :
उपशमादिथी सम्यक्त्व थयुं. पण खरेखर तो स्वपरना यथार्थ श्रद्धाननो प्रयत्न जीवे
कर्यो त्यारे सम्यक्त्व थयुं; जीव यथार्थ श्रद्धाननो उद्यम न करे ने कर्ममां उपशमादि थई
जाय. एम बनतुं नथी. आ उपरांत अहीं तो ए बताववुं छे के स्व–परनी श्रद्धामां
शुद्धात्मानी श्रद्धा आवी ज जाय छे. शुद्धात्मानी श्रद्धा ते निश्चय सम्यक्त्व छे, ते होय तो
ज स्व–परनी के देव–गुरु–धर्मनी श्रद्धाने साची श्रद्धा कहेवाय छे. निश्चय वगरना
एकला शुभ रागरूप व्यवहारथी जीव समकिती कहेवातो नथी. निश्चय सम्यक्त्व थाय
तेने ज समकिती कहीए छीए.
स्वानुभवनो रंग.....
अने तेनी भूमिका
जीवे शुद्धात्माना चिंतननो
अभ्यास करवो जोईए. जेने चैतन्यना
स्वानुभवनो रंग लागे एने संसारनो
रंग उतरी जाय. भाई, तुं अशुभ ने शुभ
बंनेथी दूर था त्यारे शुद्धात्मानुं चिंतन
थशे. जेने हजी पापना तीव्र कषायोथी
पण निवृत्ति नथी, देवगुरुनी भक्ति,
धर्मात्मानुं बहुमान, साधर्मीओनो प्रेम
वगेरे अत्यंत मंदकषायनी भूमिकामां पण
जे नथी आव्यो ते अकषाय चैतन्यनुं
निर्विकल्प ध्यान क््यांथी करशे? पहेलां
बधाय कषायनो (शुभ अशुभनो) रंग
ऊडी जाय.....ज्यां एनो रंग ऊडी जाय
त्यां एनी अत्यंत मंदता तो सहेजे थई
ज जाय, ने पछी चैतन्यनो रंग चडतां
तेने अनुभूति प्रगटे. बाकी परिणामने
एकदम शान्त कर्या वगर एमने एम
अनुभव करवा मांगे तो थाय नहि.
अहा, अनुभवी जीवनी अंदरनी दशा
कोई ओर होय छे!