: वैशाख : आत्मधर्म : प३ :
तरत उघडी ज जाय एवो कांई नियम नथी. अज्ञानी कोई ज्योतिष वगेरे जाणतो होय
ने ज्ञानीने ते न पण आवडे, अहीं बेठोबेठो स्वर्ग–नरकने विभंगज्ञानथी देखतो होय
ज्ञानीने तेवो उघाड न पण होय. अज्ञानी गणित वगेरे जाणतो होय, तेमां तेनी भूल
न पडे, छतां ए जाणपणानी धर्ममां कांई किंमत नथी. ज्ञानीने कदाच गणित वगेरे न
आवडे, दाखलामां भूल पण पडे, छतां तेनुं ज्ञान सम्यक् छे, स्वने स्वपणे अने परने
परपणे साधवारूप मूळभूत यथार्थपणामां तेने भूल थती नथी. अज्ञानी तो स्व–परने,
स्वभाव–परभावने एकबीजामां भेळवीने जाणे छे एटले तेनुं बधुंय ज्ञान खोटुं छे.
बहारना जाणपणानो उघाड पूर्वक्षयोपशम अनुसार ओछो–वधु होय, पण जे ज्ञान
पोताना भिन्नस्वभावने भूलीने जाणे छे ते अज्ञान छे, अने पोताना भिन्नस्वभावनुं
भान साथे राखीने जे जाणे छे ते सम्यग्ज्ञान छे. संसार संबंधी कंईक जाणपणुं न होय
के ओछुं होय तेथी कांई ज्ञान मिथ्या थई जतुं नथी. अने संसारनुं दोढ–डहापण घणुं
होय तेथी कांई ज्ञान सम्यक् थई जतुं नथी. एनो आधार तो शुद्धात्माना श्रद्धान उपर
छे; शुद्धात्मानुं श्रद्धान ज्यां छे त्यां सम्यक् ज्ञान छे, शुद्धात्मानुं श्रद्धान ज्यां नथी त्यां
मिथ्याज्ञान छे. एटले बहारनुं जाणपणुं ओछुं होय तो एनो ज्ञानीने खेद नथी, ने
बहारनुं जाणपणुं विशेष होय तो एनो ज्ञानीने महिमा नथी. महिमावंत तो आत्मा छे
ने ए जेणे जाणी लीधो ते ज्ञाननो महिमा छे. अहो, जगतथी जुदा मारा आत्माने में
जाणी लीधो छे तो मारा ज्ञाननुं प्रयोजन में लीधुं छे, एम निजात्म– ज्ञानथी ज्ञानी
संतुष्ट छे–तृप्त छे.
अहा, आत्मज्ञाननो महिमा अचिंत्य छे. ए ज्ञाननो महिमा भूलीने बहारना
जाणपणाना महिमामां जीवो अटकी रह्या छे. संसारना कोई निष्प्रयोजन पदार्थने
जाणवामां भूल थई तो भले थई, पण, ज्ञानी कहे छे के अमारा आत्माने जाणवामां
अमारी भूल थती नथी. अमारा आतमरामने अमे भूलता नथी. ए ज्ञाननी मस्ती
अने निःशंकता कोई अद्भुत छे! अनंत गुणोथी परिपूर्ण स्वभावनी प्रतीतनुं जोर ए
ज्ञाननी साथे वर्ती रह्युं छे. तेथी आवुं सम्यग्ज्ञान ते केवळज्ञाननो कटको छे.
स्वसत्ताना अवलंबने ज्ञानी
निजात्माने अनुभवे छे. अहो! आवा
स्वानुभवज्ञानथी मोक्षमार्ग साधनार
ज्ञानीना महिमानी शी वात! एनी दशाने
ओळखनारा जीवो न्याल थई गया छे.