Atmadharma magazine - Ank 259
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: प४ : आत्मधर्म : वैशाख :
बहारमां उपयोग वखते पण धर्मीने सम्यक्त्वधारा
चालु छे, ते वखतेय उपयोग ने राग भिन्न छे
“सम्यग्द्रष्टिना परिणाम सविकल्प तथा
निर्विकल्परूप बे प्रकारे प्रवर्ते छे. त्यां ज
विषय–कषायादिरूप वा पूजा–दान–
शास्त्राभ्यासादिरूप प्रवर्ते छे ते सविकल्परूप
जाणवुं”
सौथी पहेलां ज्यारे आत्मानुभव सहित सम्यग्दर्शन प्रगटे त्यारे तो
निर्विकल्प दशा ज होय छे, ज्ञाननो उपयोग अंतरमां थंभी गयो छे. पण एवी
निर्विकल्पदशा लांबोकाळ टकती नथी, एटले सविकल्पदशा आवे छे. आ रीते
सम्यग्द्रष्टिना परिणाम निर्विकल्प अने सविकल्प एम बंने दशारूप थईने प्रवर्ते
छे. चोथा गुणस्थाने निर्विकल्प अनुभव न थाय–एवुं नथी; तेमज सम्यग्दर्शन
थया पछी विकल्प अने राग न ज होय एम पण नथी. सम्यग्द्रष्टि गृहस्थने पण
कोईकोईवार निर्विकल्प अनुभूति थाय छे. तेमज चोथा–पांचमा गुणस्थाने तेने
भूमिकाअनुसार विषय–कषायादिना अशुभ तथा पूजा–दान–शास्त्रस्वाध्याय–
धर्मात्मानी सेवा–साधर्मीनो प्रेम–तीर्थयात्रा वगेरेना शुभ परिणाम पण आवे छे.
एना अशुभ परिणाम घणा मंद पडी गया होय छे, विषयकषायोनो प्रेम
अंतरमांथी ऊडी गयो होय छे, अशुभ वखतेय नरकादि हलकी गतिनां आयुषनुं
बंधन तो तेने थतुं ज नथी. देव–गुरु–धर्म प्रत्ये उत्साह–भक्ति, शास्त्र प्रत्ये
भक्ति, तेनो अभ्यास वगेरे शुभपरिणाम विशेषपणे होय छे, परंतु एनुं अंतर
तो ए शुभथीये उदास छे. एना अंतरमां तो एक शुद्ध आत्मा ज वस्यो छे.
ज्ञाननी साथे विकल्प वर्ते छे एटले एम कह्युं के ज्ञान सविकल्परूप थईने
वर्ते छे; परंतु खरेखर कांई ज्ञान पोते विकल्परूप थतुं नथी. ज्ञान तो ज्ञानरूपे ज
वर्ते छे, विकल्पथी जुदुं ज वर्ते छे. ज्ञान अने विकल्प ए बंनेनुं भेदज्ञान धर्मीने
सविकल्पदशा वखतेय वर्ती रह्युं छे. पण ए भूमिकामां परिणामनी स्थिति केवी
होय ते अहीं बताववुं छे. विषयकषायना जरापण भाव होय त्यां सम्यग्ज्ञान होय
ज नहीं–एम कोई माने तो ते बराबर नथी. अथवा विषयकषायना परिणाम
सर्वथा छूटीने वीतराग थाय त्यारे ज सम्यग्ज्ञान थाय–एम कोई कहे तो ते पण
बराबर नथी. हा, एटलुं खरूं के एने