: प६ : आत्मधर्म : वैशाख :
के व ळ ज्ञा न नो क ट को
आ त्म ज्ञा न नो अ चिं त्य म हि मा
“...... जाणवामां पदार्थोने विपरीत साधतुं नथी, माटे ते
सम्यग्ज्ञान केवळ ज्ञाननो अंश छे. जेम थोडुंक मेघपटल (वादळ) विलय
थतां जे कांई प्रकाश प्रगटे छे ते सर्वप्रकाशनो अंश छे. जे ज्ञान मति–
श्रुतरूप प्रवर्ते छे ते ज ज्ञान वधतुंवधतुं केवळज्ञानरूप थाय छे, तेथी
सम्यग्ज्ञाननी अपेक्षाए तो जाति एक छे.’ (पृ. ३४४)
अहा, जुओ आ सम्यग्ज्ञाननी केवळज्ञान साथे संधि! मति–श्रुतज्ञानने
केवळज्ञाननो अंश कोण कहे?–के जेणे पूर्ण ज्ञानस्वभावने प्रतीतमां लीधो होय ने ते
स्वभावना आधारे सम्यक् अंश प्रगट कर्यो होय ते ज पूर्णता साथेनी संधिथी (पूर्णताना
लक्षथी) कही शके के मारुं आ ज्ञान छे ते केवळज्ञाननो अंश छे, केवळज्ञाननी ज जात छे.
पण रागमां ज जे लीन वर्ततो होय तेनुं ज्ञान तो रागनुं थई गयुं छे, तेने तो रागथी जुदा
ज्ञानस्वभावनी ज खबर नथी, त्यां ‘आ ज्ञान आ स्वभावनो अंश छे’ एम ते कई रीते
जाणे? ज्ञानने ज परथी ने रागथी जुदुं नथी जाणतो त्यां एने स्वभावनो अंश कहेवानुं तो
तेने क््यां रह्युं? स्वभाव साथे जे एकता करे ते ज पोताना ज्ञानने ‘आ स्वभावनो अंश
छे’ एम जाणी शके. राग साथे एकतावाळो ए वात जाणी शकतो नथी.
अहा, आ तो अलौकिक वात छे! मतिश्रुतज्ञानने स्वभावनो अंश कहेवो अथवा
तो केवळज्ञाननो अंश कहेवो ए वात अज्ञानीने समजाती नथी, केमके तेने तो राग
अने ज्ञान एकमेक भासे छे. ज्ञान तो निःशंक जाणे छे के जेटला रागादि अंशो छे ते
बधाय माराथी पर भावो छे, ने जेटला ज्ञानादि अंशो छे ते बधाय मारा स्वभावो छे,
ते मारा स्वभावना ज अंशो छे, ने ते अंशो वधी वधीने केवळज्ञान थवानुं छे.
प्रश्न:– चार ज्ञानने तो विभावज्ञान कह्या छे, अहीं तेमने स्वभावना अंश केम कह्या?
उत्तर:– तेमने विभाव कह्या छे ते तो अपूर्णतानी अपेक्षाए कह्या छे, कांई विरुद्ध
जातनी अपेक्षाए (रागादिनी जेम) तेमने विभाव नथी कह्या. ए चारे ज्ञानो तो
स्वभावना ज अंश.....ने स्वभावनी ज जात; पण ते हजी अधूरा छे ने अधूराना आश्रये