: वैशाख : आत्मधर्म : प९ :
ध....न्य.....छे.....ते.....म...ने.....
२०० वर्ष पहेलां पं. श्री टोडरमल्लजी लखे छे के–आ वर्त–
मानकाळमां अध्यात्मरसना रसिक जीवो बहुज थोडा छे;
धन्य छे तेमने....जेओ स्वानुभवनी वार्ता पण करे छे.
वाह, जुओ आ स्वानुभवना रसनो महिमा! जगतमां स्वानुभवना रसिक
जीवो हंमेशा विरला ज होय छे. जेने विकारनो रस छूटीने अध्यात्मनो रस जाग्यो ते
जीवो भाग्यशाळी छे. सिद्ध समान सदा पद मेरो एवी अंतरद्रष्टि अने एना
स्वानुभवनी भावना करनारा जीवो खरेखर धन्य छे.
अध्यात्मरसनी प्रीति एटले के चैतन्यस्वभावनी प्रीति, तेनो महिमा अने फळ
बतावतां वनवासी दिगंबरसंत श्री पद्मनंदीस्वामी कहे छे के आ चैतन्यस्वरूप आत्मा
प्रत्ये प्रीतिचित्तपूर्वक–उत्साहथी तेनी वार्ता पण जेणे सांभळी छे ते भव्यजीव चोक्कस
‘भाविनिर्वाणनुं भाजन थाय छे, एटले के अल्पकाळमां ते अवश्य मोक्ष पामे छे.
चैतन्यना साक्षात् स्वानुभवनी तो वात ज शी! पण अंतरमां तेना तरफनो प्रेम जाण्यो
एटले रागादिनो प्रेम तूटयो ते जीव पण जरूर मोक्ष पामशे.
शास्त्रकारे एक खास शरत मूकी छे के “चेतन्य प्रत्येना प्रेमथी” तेनी वात
सांभळे, एटले जेना अंतरमां ऊंडेऊंडे पण रागनो प्रेम होय, रागथी लाभ थशे एवी
बुद्धि होय तेने चैतन्यनो खरो प्रेम नथी पण रागनो प्रेम छे, तेने चैतन्यस्वभाव प्रत्ये
ऊंडेथी खरो उल्लास न आवे. अहीं तो सवळानी वात छे.
रागनो प्रेम ने शरीर–कुटुंबनो प्रेम तो अनादिथी जीव करतो ज आव्यो छे, पण
हवे ते प्रेम तोडीने चैतन्यनो प्रेम जेणे जगाडयो, वीतरागी स्वभावरसनो रंग जेणे
लगाडयो ते जीव धन्य छे....ते नीकटमोक्षगामी छे.
चैतन्यनी वात सांभळतां अंदरथी रोम रोम उल्लसी जाय....असंख्य प्रदेश
चमकी ऊठे के वाह! मारा आत्मानी आ कोई अपूर्व नवी वात मने सांभळवा
मळी.....कदी नहोतुं सांभळ्युं एवुं चैतन्यतत्त्व आज मारा सांभळवामां आव्युं; पुण्य
अने पापथी जुदी ज कोई आ वात छे,–आम अंत्रस्वभावनो उत्साह लावीने अने
बर्हिभावोनो उत्साह छोडीने एकवार जेणे स्वभावनुं श्रवण कर्युं–तेनो बेडो पार!
श्रवण तो निमित्त छे पण तेना भावमां आंतरो पडी गयो, स्वभाव अने
परभाव वच्चे जराक तिराड पडी गई–ते हवे बंनेने जुदा अनुभव्ये छूटको.