Atmadharma magazine - Ank 259
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : आत्मधर्म : ६१ :
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गत मागशर–पोष मासमां समयसारनी ४७ शक्तिओ उपर जे भावभीनां
प्रवचनो थया तेनो केटलोक सारभाग अहीं आपवामां आव्यो छे.
लेखांक नं. ४ (गतांकथी चालु)
(७६) मलिनताने ‘आत्मा कोण कहे?
अरे, राग तो मलिनभाव छे, तेना सेवनथी जो तुं आत्माने धर्मनो लाभ
मानतो हो तो तें आखाय भगवान आत्माने मेलो मानी लीधो छे. अरे, क््यां
पवित्रतानो आखोय पिंड चैतन्यस्वभाव, ने क््यां रागादि मलिनभाव? जेना सेवनथी
अबंधपणुं न प्रगटे, ने जेना सेवनथी आत्मा बंधाय–एवा मलिनभावने ‘आत्मा’
कोण कहे? अने एवा मलिनभावनुं कतृृर्त्व पवित्र आत्माने केम होय? एनुं ज्ञान भले
रहो पण एनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी. आत्मा ज्यां खरेखर ‘आत्मारूप’ थईने (निर्मळ
पर्यायरूप) परिणम्यो त्यां तेनामां विकारनुं–दुःखनुं–रागनुं कर्तृत्व के भोक्तृत्व नथी, ते
निर्मळभावोने ज करे छे ने आनंदमय वीतरागभावने ज भोगवे छे.
(७७) साधकदशा
साधकभूमिकामां बे प्रकारनां–एक ज्ञाताभावमां तन्मयरूप परिणाम, अने बीजां
ज्ञाताभावथी जुदा परिणाम; तेमांथी धर्मी जीवने ज्ञाताभावथी अभिन्न एवा
वीतरागी– आनंदरूप परिणामनुं कर्ता–भोक्तापणुं छे; पण ज्ञाताभावथी भिन्न एवा
रागादि आकूळ– परिणामनुं कर्ता–भोक्तापणु धर्मीने नथी.
(७८) चैतन्यराजानी परिणति
जेम चक्रवर्तीनी राणी भिखारण न होय, एम चैतन्यराजानी परिणति विकारी
न होय, एनी परिणति तो एना जेवी निर्मळ निर्विकार होय, एने ज ए भोगवे. पर–
परिणतिने भोगवे एवो स्वभाव चैतन्यराजानो नथी.
अरे, एकवार तारा चैतन्यसुखने तुं देख तो जगतमां बीजे क््यांयथी सुख
लेवानी तारी मिथ्या–आकांक्षा मटी जशे. जगतनुं विस्मय छोड ने परम विस्मयकारी
(आनंदकारी) एवा निज तत्त्वने अंतरमां देख. कदी नहि जोयेल एवी वैभववाळी
वस्तु तने तारामां देखाशे....कदी नहि चाखेल एवो