: ६२ : आत्मधर्म : वैशाख :
स्वानुभवनो स्वाद तने तारामां वेदाशे.–माटे जगतनुं कुतूहल छोड ने तारा चैतन्यने
देखवानुं कुतूहल करीने तेनो उद्यम कर.
(८०) साधकनुं चित्त परभावमां क्यांय ठरतुं नथी;
चैतन्यस्वभावमां ज एनुं चित्त ठरे छे
अरे, आ संसारमां चारे गतिमां रखडी रखडीने विभावना केवा दुःखो छे ते में
जोई लीधा....हवे आ स्वभावभूत चैतन्यसुख केवुं छे ते पण जोयुं.....तेथी हवे आ
चैतन्यसुख सिवाय बीजा कोई परभावमां अमारी प्रीति नथी. जेम भक्तामरस्तोत्रमां
स्तुतिकार कहे छे के: प्रभो! में पहेलां अज्ञानदशामां अनेक कुदेवोने देख्या, पण एक तने
में कदी देख्यो न हतो; हवे आपने देखतां ने आपनुं स्वरूप जाणतां, बीजा कोई
कुदेवादिमां अमारुं हृदय ठरतुं नथी, आपना सिवाय बीजे क््यांय प्रेम थतो नथी;
कुदेवादिने देख्या छतां हृदय तो आपना प्रत्ये ज झूके छे; तेम अहीं साधक कहे छे के हे
नाथ! संसारना व्यवहारना सघळा परभावोने में जाणी लीधा, पण एक
चिदानंदस्वभावने अत्यार सुधी नहोतो जाण्यो; हवे ए चिदानंदस्वभावने जाणतां
बीजा कोई परभावोमां अमारुं चित्त ठरतुं नथी, चैतन्यस्वभाव सिवाय बीजा कोईनो
प्रेम थतो नथी. परभावने जाणवा छतां अमारुं हृदय तो स्वभाव प्रत्ये ज झूके छे.
परभावनी प्रीतिने हवे अमारा आत्मामां स्थान नथी.
(८१)
आत्मामां ज्ञानादि जे अनंतगुणो छे. तेओ पोताना निर्मळभावमां तद्रूपपणे
परिणमे छे, ने पर भावो साथे अतद्रूपपणे परिणमे छे, आवुं अनेकान्तपणुं आत्मानी
सर्व शक्तिओमां प्रकाशे छे.
आत्मामां अनंतशक्तिओ छे.
ने एकेक शक्तिमां पोतपोतानी पर्यायरूप पूरुं शुद्ध कार्य करवानी ताकात छे.
अने एकेक पर्याय परिपूर्ण सामर्थ्यथी भरपूर छे.
आम द्रव्य–गुण–पर्यायना सामर्थ्यनी भरेलो चैतन्यकलश छे.
आवो दुर्लभ अवसर पामीने पण हे जीव! जो तें तारा
स्वज्ञेयने न जाण्युं ने स्वाश्रये मोक्षमार्ग न साध्यो तो तारुं
जीवन व्यर्थ छे. आ अवसर चाल्यो जशे तो तुं
पस्ताईश.....माटे जाग....ने स्वहित साधवामां तत्पर था.