: वैशाख : आत्मधर्म : ६३ :
वि...वि...ध व...च...ना...मृ...त
(आत्मधर्मनो चालु विभाग लेखांक: ८)
विविध वचनामृतनो आ विभाग प्रवचनोमांथी,
शास्त्रोमांथी तेम ज रात्रिचर्चा वगेरे प्रसंगो उपरथी
तैयारी करवामां आवे छे.
(१३१) भेदज्ञान
ज्यां सुधी कषाय अने ज्ञाननी एकतानी गांठने भेदज्ञानवडे जीव भेदे नहि
त्यांसुधी तेन मोक्षमार्गनो कांई लाभ थाय नहि. मोक्षमार्गनो लाभ भेदज्ञानथी ज थाय
छे. ‘भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्ध से किलकेचन’
(१३२) शास्त्रनुं तात्पर्य
वीतरागी शास्त्रनुं तात्पर्य हंमेशा एवुं ज होय के जेनाथी आत्माने लाभ थाय
ने वीतरागता वधे.
(१३३) शास्त्रनुं रहस्य स्वानुभूतिमां छे
स्वानुभूतिरूप आत्मज्ञान पासे शास्त्रज्ञान पण स्थूळ छे. हजारो वर्षना
शास्त्रज्ञान करतां एक क्षणनुं अनुभवज्ञान वधी जाय छे. शास्त्रो पण आवा
अनुभवनो ज उपदेश आपे छे. स्वानुभव विना शास्त्रनुं खरुं रहस्य जणाय नहि. सर्वे
शास्त्रोनुं रहस्य स्वानुभूतिमां समाय छे. स्वानुभूति वगरनुं ज्ञान मोक्षमार्गमां आवी
शके नहि. स्वानुभूति वडे ज मोक्षमार्ग शरू थाय छे.
(१३४) मोक्षमार्गना अभिनन्दन
हे जीव! सन्तो तने तारा स्वभावनी पूर्णता ने स्वाधीनता बतावे छे. एकवार
तारी स्वाधीनताने जो तो खरो. तने तारा स्वाधीनपरिणमननी वात बेसे तो शाबासी
एटले के जो आवी स्वाधीनपरिणमननी वात बेसी तो तारुं परिणमन अंर्तलक्ष तरफ
वळ्युं ने स्वाश्रये अपूर्व सम्यक्दशारूप मोक्षमार्ग प्रगट्यो,–माटे तने शाबासी! जेम
परीक्षामां पास थाय तेना अभिनंदन आपे छे ने! तेम अहीं धर्मात्माने मोक्षमार्गना
अभिनंदन आप्या छे.
(१३प) स्वाधीन मोक्षमार्ग
(उपादान निजशक्ति है)
हे जीव! तारुं उपादान तारी निजशक्तिथी भरेलुं छे. उपादाननी आवी
स्वतंत्रता जाणीने स्वाश्रये तारा स्वकार्यने साध, मोक्षमार्गने साध. तारो मोक्षमार्ग
साधवामां