: १४: आत्मधर्म :जेठ:
स्वभाव समजतां सिद्धपणुं प्रगटवानो पंथ हाथ आवे छे. पण जे विचार ज न
करे, समजवानी दरकार ज न करे तेने अनुभव क््यांथी थाय? समजणना उद्यम वडे
भेदज्ञान थतां अंदर सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणेनी निर्मळताना अंश साथे
अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे. आवो अनुभव थतां मोक्षमार्ग शरू थयो. ते
अपूर्व धर्म छे ने ते ज अपूर्व मंगळ छे.
आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे; तेने भूलीने अनादिथी जे विकारनो
अनुभव छे ते अनुभवने खरेखर भगवान ‘आत्मा’ कहेता नथी. आत्मा तो तेने
कहेवाय के जेना वेदनमां अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनो स्वाद आवे. जेना वेदनमां
आनंद न आवे तेने आत्मा केम कहेवाय? शुद्धनय तो परभावोथी भिन्न ने आनंदना
अनुभवनशील आत्माने प्रसिद्ध करे छे.
आत्माना अतीन्द्रिय सुखनुं स्वरूप समजाववा माटे चारगतिमां कोई द्रष्टांत
नथी; चारगतिना वेदनथी चैतन्यस्वभावना अतीन्द्रिय सुखनुं वेदन कोई जुदी जातनुं
छे. आत्मा नित्य ज्ञानानंदस्वरूप छे; कोई जीवने पोताना पूर्वभवना संस्कारो याद
आवता जोवामां आवे छे. पण आत्माना आनंदनो अनुभव तो तेना करतांय अंतरनी
बीजी चीज छे. पूर्वभवनुं स्मरण थाय ते जुदी चीज छे ने स्वभावनो अनुभव थाय ते
कोई जुदी चीज छे. पूर्वभवनुं स्मरण कोईवार अज्ञानीने य थाय छे, तेमां अपूर्वता
नथी. अपूर्वता तो आत्मअनुभवमां छे. धर्मीने जातिस्मरण थाय तेमां तो पूर्वभवना
धर्मना संस्कार पण ताजा थाय, ने विशेष ज्ञानवैराग्यनुं कारण थाय. देहथी भिन्न
चैतन्यना अनुभवपूर्वक देहथी भिन्न जीवन जीवतां जेणे आवडयुं तेने समाधिमरणे
मरतां आवडशे. जेणे देहथी भिन्न भेदज्ञानमय जीवन जाण्युं नथी तेने देह छूटवा टाणे
समाधिमरणे मरतांय नहीं आवडे. देहमां एकत्वबुद्धिने तो मृतककलेवरमां मूर्छा कही छे;
देहमां मूर्छाणो एने चैतन्यनुं जीवन केवुं होय एनी खबर नथी.
श्रीफळमां जेम सफेद अने मीठो गोळो छालांथी तथा काचलीथी तेमज रातपथी
जुदो छे; तेम चैतन्यगोळो देहरूपी छालाथी जुदो, कर्मरूपी काचलीथी जुदो, ने रागरूपी
रातपथी पण जुदो, अतीन्द्रिय आनंदथी भरेलो छे. आवा उत्तम आत्माने जाणवो ते
ज उत्तम फळ छे.
प्रश्न:– आत्मा शुद्ध कई रीते थाय?
उत्तर:– शुद्धस्वभावनो अनुभव करवाथी जीव शुद्धताने पामे छे. ए सिवाय
रागद्वारा आत्मा शुद्धताने पामतो नथी. स्वभावने अनुभवनार ज्ञानी कहे छे के अमे
ज्यां ऊभा छीए तेनी जगतने खबर नथी; अने जगत जे जुए छे तेमां अमे ऊभा
नथी; जगत बहु तो बहारनी क्रियाने के रागने जुए छे, पण तेमां तो ज्ञानीने स्वपणुं
रह्युं नथी, ज्ञानीने जेमां स्वपणुं छे एवा शुद्धतत्त्वने अज्ञानीओ जाणता नथी. ज्ञानीनी
परिणति तो चैतन्यप्रभु साथे परणी, ते हवे बीजा कोई साथे प्रीति नहि करे. चैतन्यनी
प्रीति अने लगनीथी तेमां लीन थईने केवळज्ञान अने सिद्धपद पामशे.