: १६: आत्मधर्म :जेठ:
आत्माने ज्यां जाण्यो त्यां धर्मात्माने सर्वे परभावनो महिमा छूटी गयो. ते जाणे छे के
मारी चैतन्यवस्तु विकारनी मेटनशील छे, एटले विकारने मटाडे एवो एनो स्वभाव
छे. विकारने जन्मावे एवी मारी चैतन्यवस्तु नथी, क्षणेक्षणे पोतानी निर्मळ
परिणतिरूपे जन्मे एवो चैतन्यवस्तुनो स्वभाव छे. भगवान आदिनाथ फागण वद
नोमे जन्म्या, खरेखर तो भगवान आदिनाथ क्षणेक्षणे पोतानी निर्मळ परिणतिमां ज
उपजता हता, ते ज खरो जन्म हतो, देहमां भगवान उपज्या के मरूदेवी मातानी
कूंखमां भगवान अवतर्या एम कहेवुं ते व्यवहार छे. अहा, तीर्थंकरनो ज्यां अवतार
थाय त्यां अंधकार रहे नहि, जगतमां प्रकाश थई जाय; तो जेना अंतरमां
स्वानुभूतिरूप सूर्यना प्रकाशथी झळहळता चैतन्यभगवाननो अवतार थयो तेना
अंतरमां अज्ञानना अंधारा केम रहे? त्यां परभाव पण केम रहे? त्यां तो
ज्ञानप्रकाशथी आत्मा झळकी ऊठ्यो. अहो, आत्मामां अमृतना मेह वरसे एवी आ
वात छे. विकारपर्यायमां रहेवानो आत्मानो शुद्धस्वभाव नथी, पण विकारने नाश
करवानो आत्मानो स्वभाव छे. तथा निर्मळ ज्ञानआनंदरूप परिणति प्रगट करीने तेमां
रहेवानो आत्मानो स्वभाव छे. एने जाणे तो स्वानुभवमां आनंदमय आत्मप्रभुनो
दीक्षाकल्याणक–प्रसंगनुं वैराग्य–प्रवचन