: जेठ : आत्मधर्म : १९ :
नहि. वीतरागभावनी धारा उल्लसी तेने संसारना बंधनमां कोई बांधी शके नहि.
आवी वीतरागधारा उल्लसावीने ऋषभदेव भगवान आजे मुनि थया.
अहीं भगवान आदिनाथे दीक्षा लीधी ने आजे ज भगवान महावीरप्रभुने
केवळज्ञान थवानो दिवस छे. भगवान आज सर्वज्ञपरमात्मा थया. आनंदनी प्राप्ति ने
अमृतनी तृप्ति पूर्ण थई गई. आवा सर्वज्ञपरमात्मानो जय हो.
सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी,
आराध! आराध! प्रभाव आणी;
अनाथ एकान्त सनाथ थाशे,
एना विना कोई न बांह्य स्हाशे.
सर्वज्ञ भगवाने कहेलो आत्मानो धर्म एटले के आत्मानो स्वभाव ए ज
शरणरूप छे एम जाणीने हे जीव! तुं आदरपूर्वक एनी आराधना कर. एनी
आराधनानो उत्साह कर.....उत्साहथी आत्मानी आराधना कर, वीर्यनी मंदता छोड. हुं
क््यारे केवळज्ञान प्रगट करुं–एम उत्साह लावीने आराधना कर.
अनंता तीर्थंकरो जे पंथे सिद्ध थया ते ज मारो पंथ छे;–आजे हुं ए पंथे जाउं
छुं,–आवी भावनाथी सिद्धभगवंतोने नमस्कार करीने भगवान मुनि थया, ने
आत्मध्यानमां लीन थईने सातमुं गुणस्थान प्रगट कर्युं, चोथुं मनःपर्ययज्ञान प्रगट्युं;
ने भगवान तो एकाकीपणे वनमां विचारवा लाग्या. अडोलपणे चैतन्यना ध्यानमां ने
आनंदना अनुभवमां मग्न रहेता हता. अहा, ए मुनिदशानी शी वात!
एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां,
वळी पर्वतमां वाघ–सिंह संयोग जो;
अडोल आसन ने मनमां नहि क्षोभता,
परम मित्रनो जाणे पाम्या योग जो.
आवी साक्षात्दशा भगवाने आजे प्रगट करी. आ देह मारो नथी, ए मारे
जोईतो नथी, सिंह वाघ आवीने खाई जाय तो तेना उपर द्वेष न थाय ने मनमां क्षोभ
न थाय एवी अडोल आत्मध्यानदशामां क््यारे लीन रहीए? जो के भगवान तीर्थंकरने
सिंह वाघ फाडी खाय–एवा प्रकारनो उपद्रव होतो नथी. पण गमे तेवा उपसर्ग आवे
तोय आत्मध्यानथी न डगे ने चैतन्यना ध्याननी श्रेणीमां लीन रहीने केवळज्ञान प्रगट
करे एवी दशामां मुनि झूलता होय छे.
वीतरागी चिदानंद शीतळ स्वभावमां भगवान एकाग्र थईने एवा जामी गया
के बहारमां कोण पूजे छे तेनुंय लक्ष न रह्युं अमृतनो आखो दरियो अंदर भर्यो छे तेमां
लीन थईने परम आनंदनो क्षणेक्षणे निर्विकल्प अनुभव भगवान लेता हता.
दरेक व्यक्तिए आत्मज्ञान करीने आवी मुनिदशानी भावना भाववा जेवी छे.
आ जीवने पण आवी चारित्रदशा प्रगट कर्या वगर मुक्ति थती नथी. मुनिदशा ते
मोक्षनी साक्षात् साधकदशा छे, ते परमेष्ठीपद छे.