: ४ : आत्मधर्म : जेठ :
शुद्ध आत्मस्वभाव प्रिय नथी. विकल्पनी जाळ ऊठे ते ज्ञानीने प्रिय नथी, ईष्टरूप नथी,
तेनी ईच्छा नथी; एटले ते विकल्पजाळ ऊठे तो ऊठो पण अनुभवनशील एवी शुद्ध
चैतन्यवस्तुमां तो कांई विकल्पजाळ नथी; तेथी ते स्वद्रव्य नथी पण परद्रव्य छे; ने
परद्रव्य होवाथी स्ववस्तुना अनुभवमां तो ते अवस्तु ज छे. जेम चेतनना अनुभवमां
जडनो प्रवेश नथी तेम परभावनो पण तेमां प्रवेश नथी तेथी ते पण परमार्थे परद्रव्य
छे, जे स्वद्रव्यनी शुद्धअनुभूतिमां नहि ते बधुं य परद्रव्य छे. अरे, रागने तो
मोक्षमार्गनो घातक कह्यो छे तो ते स्ववस्तु केम होय? अज्ञानी तेने (शुभ रागने)
मोक्षनुं साधन माने छे. पण भाई, अशुभकषायोनी जेम शुभ परिणामोनो पण
मोक्षमार्गमां निषेध छे. शुद्ध चैतन्यवस्तुना अनुभवरूप जे मोक्षमार्ग छे ते तो एकली
शुद्धतारूप ज छे, ते शुभाशुभरागरूप नथी. शुभाशुभराग तो मोक्षमार्गनी क्रियाथी
विपरीत छे. मोक्षमार्ग भलो छे, अने शुभाशुभपरिणाम दुष्ट छे, माटे ते वर्जनीय छे.
अहा, छठ्ठा सातमा गुणस्थाने स्वरूपना आनंदमां वारंवार झूलता भगवान
संत– मुनिओए स्पष्ट वस्तुस्वरूप अनुभवीने प्रसिद्ध कर्युं छे. अहा, मुनिदशा एटले
तो परमेष्ठी– पद,–जाणे हालताचालता भगवान!–एवा संतोनी आ वाणी छे,
कुंदकुंदाचार्यदेव ने अमृतचंद्राचार्यदेवे अलौकिक वस्तुस्वरूप जगतने बताव्युं छे, शुद्ध
जीवस्वभाव अने परभावोनी अत्यंत भिन्नता बतावीने शुद्धजीवनो अनुभव कराव्यो
छे; ने परभावोने तो ‘अवस्तु’ कहीने अनुभवथी बहार काढी नांख्या छे; एटले
व्यवहारने ज शुद्धअनुभवनी बहार काढी नांख्यो छे.
आ ‘अजीव–अधिकार’ छे, ‘शुद्धजीव’ नहि ते बधुंय अजीव–एम जीव–
अजीवनी स्पष्ट वहेंचणी करी छे. आवा शुद्धस्वरूप जीवने अनुभवमां ने प्रतीतमां लेवो
ते सम्यग्दर्शन छे. आवा सम्यग्दर्शननी द्रष्टिमां उत्कृष्ट एक परम तत्त्व ज देखाय छे.
कोई विभावो तेमां देखाता नथी. विभाव एटले के व्यवहारपरिणाम ते उत्कृष्ट नथी,
शुद्धद्रष्टिमां जे परमतत्त्व देखाय छे ते ज उत्कृष्ट छे. आठ वर्षनी बालिका पण
अनुभवमां ज मोक्षमार्ग समाय छे.