: ८ : आत्मधर्म : अषाड :
माटे नवतत्त्वना एकला विकल्पमां ज जे अटक्यो छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. सकल कर्मनी
विकल्प आवशे–तेनुं ज्ञान कराव्युं पण तुं ते विकल्पना ज अनुभवमां न अटकीश, तेनुं
अवलंबन छोडीने, तेनाथी आगळ जईने अंतरमां एकरूप शुद्धजीववस्तु छे तेने देखजे,
तो ज सम्यग्दर्शन थशे. विकल्पनो अनुभव ते तो विभाव छे, तेने सम्यग्दर्शन मानी न
लईश. विकल्प आवशे पण ते कांई मोक्षमार्गीनुं कर्तव्य नथी; मोक्षमार्गीनुं कर्तत्व तो
शुद्ध सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे; तेने ज नियमसारमां ‘नियमथी कर्तव्य’ कहेल छे.
विकल्प तो विभाव छे, तेने कर्तव्य माने एने मोक्षमार्ग केवो? पहेलां वस्तुनी स्थिति
कया प्रकारे छे, मार्ग कया प्रकारे छे तेनो निश्चय करे तो ज अंतर्मुख वळवानो जोरदार
शुद्धजीवनो प्रयत्क्षअनुभव थतां ज सम्यग्दर्शन थाय छे; त्यां प्रत्यक्षअनुभव ते
तो ज्ञानपर्याय छे, पण ते ज्ञानपर्यायनी साथे जे प्रतीत थई ते सम्यग्दर्शन छे. आवुं
आत्मस्वभावनुं माहात्म्य आवे ने अंर्तद्रष्टिथी परिणमन करे त्यारे मोक्षमार्ग
प्रश्न:– मोक्षमार्ग तो सम्यग्दर्शन ज्ञान–चारित्रने कह्यो छे?
उत्तर:– सम्यग्दर्शन थतां अंर्तद्रष्टिथी परिणमन थयुं तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र त्रणे भेगा छे. स्वानुभूतिमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे समाय छे. ए
सिवाय रागरूप जे व्यवहाररत्नत्रय छे ते तो विभावपरिणति छे, ते कांई
स्वभावपरिणति नथी. मोक्षमार्ग तो स्वभावपरिणति छे. रागना यत्नथी मोक्षमार्ग
स्वानुभूतिथी ज्यां सम्यग्दर्शनादि थयुं त्यां पूर्वबद्ध कर्मो निर्जरवा मांडे छे.
आवी निर्जरापूर्वक मोक्षमार्ग होय छे. सम्यग्दर्शन वगर साची निर्जरा के मोक्षमार्ग होय
नहि चैतन्यरत्नाकर, एटले के अनंतगुणरूपी रत्नोनो समुद्र, तेमां निर्मळपरिणतिना
तरंग उल्लसे छे. आवो आत्मा ते सम्यक्त्वनो विषय छे. सम्यक्त्व थयुं त्यां आठे
कर्मोथी भिन्न आत्मा अनुभवमां आव्यो; पछी जे अल्पकर्म बाकी छे ते परज्ञेयमां छे,
स्ववस्तुमां ते नथी. स्ववस्तु तो पोताना एकत्वस्वभावमां स्थित निर्विकल्प छे.
शुद्धनय कहो के निर्विकल्प– वस्तुनी द्रष्टि कहो, एटले अतीन्द्रियआनंदना प्रत्यक्ष
स्वादद्वारा निर्विकल्पद्रष्टिथी वस्तुने देखवी ते–सम्यग्दर्शन छे. जुओ, आ शुद्धद्रष्टि;
शुद्धनय एटले ज निर्विकल्प–