: अषाड : आत्मधर्म : १३ :
नथी. तेथी संतोए भावशुद्धिनो प्रधान उपदेश दीधो छे. प्रथम सम्यग्दर्शन करवुं ते
भावशुद्धि छे. सम्यग्दर्शन वगर कदी भावशुद्धि थाय नहि, ने अशुद्धि टळे नहि; अशुद्धि
टळ्या विना मोक्ष क््यांथी थाय? चैतन्यनो रंग जेने लाग्यो नथी ने रागना रंगमां जे
रंगाई रह्यो छे तेने भावशुद्धि नथी, भावशुद्धि वगरनुं व्रत–तप–भणतर बधुं व्यर्थ छे,
ते मोक्षनुं जरापण साधन थतुं नथी.
सम्यग्द्रष्टिने तो पोताना शुद्ध चैतन्यनो रंग लाग्यो छे, ने रागनो रंग छूटी
गयो छे, रागने भिन्न जाणीने, शुद्धस्वभावना अनुभवथी जेटलो सम्यक्त्वादिरूप
शुद्धभाव प्रगट कर्यो छे तेटलो ज मोक्षमार्ग छे. आवा शुद्धभाव वगर कोई पण क्षेत्रमां
मोक्षमार्ग नथी. गमे तेवुं आचरण करे पण जीवने ज्यांसुधी शुद्धभाव नथी त्यांसुधी
मोक्षमार्ग थतो नथी–ए नियम छे, माटे हे जीव! तुं भावशुद्धिने जाण ने तेनो उद्यम
कर.
जीवना परिणाम त्रण प्रकारना–
* अशुभ
* शुभ.
* शुद्ध.
* हिंसा, चोरी आदि पापपरिणाम ते अशुभ छे, ते पापबंधनुं कारण छे.
* दया, दान, पूजा, व्रतादि पुण्यपरिणाम ते शुभ छे, ते पुण्यबंधनुं कारण छे.
* शुभाशुभ बंनेथी रहित, मिथ्यात्वादिथी रहित जे सम्यक्त्वादि शुद्ध वीतराग
परिणाम ते शुद्धभाव छे, ते ज कर्मक्षयनुं कारण छे. ए सिवाय शुभ के अशुभभाव ते
कर्मक्षयनुं कारण नथी पण कर्मबंधनुं कारण छे. एटले ते धर्म नथी. धर्म तो शुद्धभाव
ज छे.
रागादि परभावोमां स्वभावबुद्धि अथवा लाभबुद्धि ते मिथ्यात्व छे. ने
मिथ्यात्व ते मोटो अशुद्धभाव छे; सम्यक्त्ववडे ज ते अशुद्धता मटे छे. शुभरागमां
एवी ताकात नथी के मिथ्यात्वनी अशुद्धताने मटाडे. आ रीते सम्यक्त्व ए पण
शुद्धभाव छे. सम्यक्त्वथी मांडीने सिद्धपद सुधीना बधा पद शुद्धभावमां समाय छे. आ
रीते शुद्धभाव ते धर्म छे, ते ज मुमुक्षुनो मनोरथ छे. आ आत्मा शुद्धोपयोगरूपे
परिणमे ते ज मनोरथ छे.