Atmadharma magazine - Ank 261
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : अषाड :
प्रश्न:– अनुभवमांय व्यवहारने जूठो तो कह्यो ज छे?
उतर:– अनुभूतिमां व्यवहारने जूठो कह्यो छे, पण तेने कांई तेमां
विपरीतता नथी; नवतत्त्वने जेम छे तेम जाणीने पछी अनुभव टाणे एनो
विकल्प छूटी गयो तेथी त्यां व्यवहार जूठो (असत्–अविद्यमान) कह्यो; अने
अज्ञानीने तो नवतत्त्वना निर्णयमां ज भूल छे, तेथी तेना व्यवहारने
विपरीतपणानी अपेक्षाए खोटो कह्यो; व्यवहारमां जेनी विपरीतता छे तेने तो
निर्णय ज खोटो छे, ज्ञान खोटुं छे, श्रद्धा खोटी छे, तेने शुद्धवस्तुनो अनुभव थाय
नहि. अहीं तो नवतत्त्व जाणीने व्यवहारनी विपरीतता जेणे दूर करी छे, ते
उपरांत शुद्धवस्तुना अनुभववडे नवतत्त्वना विकल्प पण छोडया छे–एवो जीव
अपूर्व सम्यग्दर्शन पामे छे, तेनुं वर्णन छे.
नवतत्त्वना विकल्पथी पार शुद्धजीववस्तुनो अनुभव करवाथी ज सम्यग्दर्शन
थाय छे, माटे नवतत्त्वना विकल्पथी पार अने अंतरंगमां सदाय शुद्धपणे प्रकाशमान
एवी शुद्ध आत्मज्योतिने तमे देखो एटले के अत्यंतपणे अनुभवमां ल्यो,–एम संतोनो
‘हुं ज्ञाता छुं, एम ज्ञानसन्मुख थईने न
परिणमतां रागादिनो कर्ता थईने परिणमे छे ते जीव
क्रमबद्ध–पर्यायनो ज्ञाता नथी, क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता
तो ज्ञायकसन्मुख रहीने रागादिने पण जाणे ज छे.
तेने स्वभावसन्मुख परिणमनमां शुद्धपर्याय ज थती
जाय छे.
आत्मानो ज्ञान स्वभाव छे तेने लक्षमां लईने
तुं विचार के आ तरफ हुं ज्ञायक छुं–मारो
सर्वज्ञस्वभाव छे,–तो सामे ज्ञेयवस्तुनी पर्याय
क्रमबद्ध ज होय के अक्रमबद्ध? पोताना
ज्ञानस्वभावने सामे राखीने विचारे तो तो आ
क्रमबद्धपर्यायनी वात सीधीसट बेसी जाय तेवी छे;
पण ज्ञायकस्वभावने भूलीने विचारे तो एक पण
वस्तुनो निर्णय थाय तेम नथी.