: अषाड : आत्मधर्म : १७ :
अध्यात्मतत्त्वनी वात समजवा आवनार जिज्ञासुने वैराग्य अने कषायनी
मंदता तो होय ज. जेने कषायनी मंदता अने वैराग्य होय तेने ज आत्मस्वरूप
समजवानी जिज्ञासा जागे. मंद कषायनी वातो तो बधाय करे छे, पण जे सर्व
कषायथी रहित छे एवुं पोताना आत्मतत्त्वनुं स्वरूप ते समजीने जन्म–मरणना
समजवाना टाणां आव्यां, देह क््यारे छूटशे एनो कोई भरोसो नथी, एवा काळे जो
कषायने मूकीने आत्मस्वरूप नहि समजे तो क््यारे समजशे? पुरुषार्थसिद्धिउपायमां
तो कह्युं छे के जिज्ञासु जीवने पहेलां सम्यग्दर्शनपूर्वक मुनिपणानो उपदेश आपवो;
अहीं तो हजी पहेलां सम्यग्दर्शन प्रगट करवानी वात छे. भाई, मानवजीवननी
देहस्थिति पूरी थतां जो तुं स्वभावनी रुचि अने परिणति साथे न लई जा तो तें
तारा जीवनमां कांई आत्मकार्य कर्युं नथी. देह छोडीने जतां जीवनी साथे शुं
आवशे? जो जीवनमां तत्त्व समजवानी दरकार करी हशे तो ममतारहित स्वरूपनी
रुचि अने परिणति साथे लई जशे; अने जो ते दरकार नहि करी होय तथा परनां
ममत्व करवामां ज जीवन काढयुं हशे तो तेने मात्र ममताभावनी आकुळता सिवाय
बीजुं कांई साथेजवानुं नथी. कोईपण जीवने पर वस्तुओ साथे जती नथी, मात्र
पोतानो भाव ज साथे लई जाय छे.
माटे अहीं आचार्यदेव कहे छे के चेतनावडे आत्मानुं ग्रहण करवुं. जेणे चेतनावडे
आत्मानुं ग्रहण कर्युं छे ते सदा आत्मामां ज छे. जेणे चेतनावडे शुद्ध आत्माने जाण्यो छे ते
कदी पर पदार्थने के परभावोने आत्माना स्वभाव तरीके ग्रहण करता नथी पण शुद्धात्माने
ज पोतापणे जाणीने तेनुं ज ग्रहण करे छे, एटले ते सदाय पोताना आत्मामां ज छे. कोई
पूछे के कुंदकुंदप्रभु क््यां छे? तो ज्ञानी उत्तर आपे छे के खरेखर कुंदकुंदप्रभु स्वर्गादि
बाह्यक्षेत्रोमां नथी पण तेमना निर्मळआत्मामां ज छे. जेणे कदी कोई परपदार्थोने पोताना
मान्यां नथी अने एक चेतनास्वभावने ज स्वपणे अंगीकार कर्यो छे. ते चेतनास्वभाव
सिवाय बीजे क्यां जाय! जेणे चेतनावडे आत्मानुं ग्रहण कर्युं छे ते सदा