: १८ : आत्मधर्म : अषाड :
पोताना आत्मामां टकी रहे छे. जेमां जेनी द्रष्टि पडी छे तेमां ज ते कायम रहेला छे.
पोतानी चैतन्यभूमिकाथी बहार खरेखर कोई जीव रहेतो नथी. पोतानी
चैतन्यभूमिकामां जेवा भाव करे तेवा भावमां ते रहे छे; ज्ञानी ज्ञानभावमां रहे छे
अने अज्ञानी अज्ञानभावमां रहे छे. बहारमां गमे ते क्षेत्र होय पण जीव पोतानी
चैतन्यभूमिकामां जे भाव करे ते भावने ज ते भोगवे छे, बहारना संयोगने भोगवतो
नथी. आम समजीने निजभावमां रहेवुं ते जीवननुं कर्तव्य छे.
(श्री समयसार गाथा २९७ ना व्याख्यानमांथी)
आत्मानी तालावेली
जेने शुद्ध आत्मा समजवानी धगश जागी छे.
एवा जिज्ञासु जीवने प्रश्न ऊठे छे के शुद्ध आत्मानुं
केवुं स्वरूप छे? जेम रणमां कोईने पाणीनी तृषा
लागी होय, पाणी पीवानी झंखना थई होय, तेने
पाणीनी निशानी सांभळतां केवी तालावेली थाय!
ने पछी पाणी पीतां केटलो तृप्त थाय! तेम जेने
आ भवरणमां भटकतां आत्मानुं स्वरूप
जाणवानी झंखना थई छे ते शुद्धआत्मानी वात
सांभळता आनंदित थाय छे–उल्लसित थाय छे, ने
पछी सम्यक्पुरुषार्थ वडे आत्मस्वरूपने पामीने ते
तृप्त थाय छे. शुद्ध आत्मस्वरूपने जाणवानी जेने
तीव्र जिज्ञासा थई छे एवा जीवने आ वात
संभळाववामां आवे छे.
आत्मा समजवा माटे जेने अंतरमां
खरेखरी धगश अने तालावेली जागे तेने
अंतरमां समजणनो मार्ग थया विना रहे ज
नहि; पोतानी धगशना बळे अंतरमां मार्ग
करीने ते आत्मस्वरूपने पामे ज.
(समयसार गा. प ना प्रवचनमांथी)