: अषाड : आत्मधर्म : १९ :
सम्यग्द्रष्टिनी अंदरनी
दशानुं वर्णन
सविकल्पता के निर्विकल्पता–बंने वखते सम्यक्त्व सरखुं छे.
“धर्मात्मा ज्यां शुभ–अशुभरूप परिणमता होय त्यां तेमने सम्यक्त्वनुं
अस्तित्व केवी रीते होय? ते वात अहीं द्रष्टांतपूर्वक समजावे छे: जेम कोई
गुमास्तो शेठना कार्यमां प्रवर्ते छे, ते कार्यने पोतानुं कार्य पण कहे छे, हर्ष–
विषादने पण पामे छे, ए कार्यमां प्रवर्ततां ते पोतानी अने शेठनी
आपसमां जुदाई पण समजतो नथी, परंतु तेने एवुं अंतरंग श्रद्धान छे के
‘आ मारुं कार्य नथी.’ ए प्रमाणे कार्य करनार ते गुमास्तो ‘शाहुकार’ छे;
पण ते शेठना धनने चोरी तेने पोतानुं माने तो ते गुमास्तो चोर ज
कहेवाय; तेम कर्मोदयजनित शुभाशुभकार्यनो कर्ता थई तद्रूप परिणमे तो
पण ते सम्यग्द्रष्टिने एवा प्रकारनुं अंतरंग श्रद्धान छे के ‘आ कार्य मारां
नथी.’ पण जो देहाश्रित व्रत–संयमने पण पोतानां माने तो ते मिथ्याद्रष्टि
छे. आवी रीते सविकल्प परिणाम होय छे.”
शुभाशुभ परिणाम वखते पण धर्मीने शुद्धात्मश्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व होय
छे ए वात अहीं द्रष्टांत आपीने समजावी छे. सविकल्पणुं अने निर्विकल्पपणुं तो
उपयोगनी अपेक्षाए छे, श्रद्धामां कांई सविकल्प अने निर्विकल्प एवा भेद नथी.
अशुभरागरूप सविकल्पदशा हो के शुभरागरूप सविकल्पदशा हो, सम्यक्त्व तो ए
बंनेथी पार शुद्धात्माना श्रद्धानरूप वर्ते छे. ते सम्यग्द्रष्टिने स्वानुभवमां उपयोग होय के
बहार शुभ–अशुभमां उपयोग होय,–परंतु बंने वखते तेने सम्यग्दर्शन तो एक ज
प्रकारे वर्ते छे. आथी एम न समजी लेवुं के समकिती पोताना उपयोगने गमे तेम
बहार भमाव्या करता हशे. स्वानुभवमां जे आनंदनो स्वाद चाख्यो छे तेमां फरीफरीने
उपयोग जोडवानी भावना तेने वर्ते ज छे, ते माटे वारंवार प्रयत्न पण करे छे; केमके,
श्रद्धा एवी ने एवी होवा छतां स्वानुभवमां उपयोग वखते निर्विकल्पदशामां
अतीन्द्रिय आनंदनुं जे विशेष वेदन थाय छे तेवुं सविकल्पदशामां नथी होतुं. पण एवी
निर्विकल्पदशा नथी टकती त्यारे शुभ के अशुभमां पण धर्मीनो उपयोग जोडाय छे.
अशुभमां उपयोग जोडाय त्यारे समकित कांई मेलुं नथी थई जतुं. ईन्द्रिय तरफ उपयोग
जोडायो त्यारे समकित जुदुं ने अतीन्द्रिय उपयोग थयो त्यारे समकित जुदुं–एम कांई
सम्यग्दर्शनमां बे भेद नथी. प्रत्यक्ष–परोक्ष एवा भेद पण उपयोगमां छे, सम्यग्दर्शनमां
कांई प्रत्यक्षपरोक्षपणुं नथी; सम्यग्दर्शन तो शुद्धआत्माना श्रद्धानरूप छे.