कर्या छे, एटले ते जे कांई जाणे ते बधुं सम्यग्ज्ञान ज छे. तेनुं ज्ञान पदार्थोने
विपरीतपणे साधतुं नथी. पोतानुं मोक्षमार्ग साधवानुं जे प्रयोजन छे ते अन्यथा थतुं
नथी. अहो, आत्मा संबंधी ज्ञानमां ज्यां भूल नथी त्यां बहारना जाणपणानी भूल
कांई मोक्षमार्ग साधवामां नडती नथी. आत्माने जाण्यो त्यां बधुंय ज्ञान सम्यक् गई
गयुं. मिथ्याद्रष्टिने बहारनुं कंईक जाणपणुं भले हो परंतु तेनुं ते बाह्यज्ञान मोक्षमार्गरूप
निजप्रयोजनने साधतुं नथी तेथी तेने मिथ्याज्ञान ज कहीए छीए आ रीते ज्ञानमां
‘सम्यक’ अने ‘मिथ्या’ एवा बे प्रकार निजप्रयोजनने साधवा–न साधवानी अपेक्षाए
समजवा. जुओ, आ ज्ञाननुं प्रयोजन. शुद्धात्मारूप प्रयोजन वगरनुं बधुंय जाणपणुं
थोथां छे, मोक्षमार्गमां तेनी कांई गणतरी नथी.
होय छे. परंतु सविकल्पता हो के निर्विकल्पता हो–सम्यग्दर्शन तो बंने वखते एवुं ने
एवुं वर्ते छे. कांई एम नथी के निर्विकल्पता वखते सम्यग्दर्शन वधु निर्मळ थई जाय ने
सविकल्पता वखते ते मलिन थई जाय. कोईने सविकल्पता होय छतां क्षायिकसम्यक्त्व
वर्ततुं होय, कोईने निर्विकल्पता होवा छतां क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वर्ततुं होय, एटले
समकितनी निर्मळतानुं के निश्चय–व्यवहारनुं माप सविकल्पता–निर्विकल्पता उपरथी
नथी थतुं. हा, एमां एटलो नियम खरो के सम्यक्त्वनी उत्पत्तिना काळे
निर्विकल्पअनुभूति होय ज. अने मिथ्याद्रष्टिने तो निर्विकल्पअनुभूति कदी होई शके
नहि. परंतु सम्यग्द्रष्टिने निर्विकल्पउपयोग सदाय रहे एवुं ए बंनेनुं सदाय
अविनाभावीपणुं नथी.