Atmadharma magazine - Ank 261
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : अषाड :
(सं. २०२१ चैत्र–वैशाख मास दरमियान पू.
गुरुदेव एक मास राजकोट पधार्या त्यारे हंमेशा रात्रे
तत्त्वचर्चा–प्रश्नोत्तरीनो कार्यक्रम जिज्ञासुओने रस
उपजावतो हतो; ते प्रश्नोत्तरीमांथी तेमज सोनगढनी
तत्त्वचर्चाओमांथी केटली उपयोगी नोंधनुं दोहन
(आत्मधर्म अंक २प९थी चालु)
(१८) प्र; परद्रव्यने जाणवा तरफ परिणति जाय एटले के उपयोग बहारमां
भमे, अने ते वखते वीतरागता रहे–एम बने?
उ; स्वाश्रये जेटली वीतराग परिणति थई छे तेटली वीतरागता तो परज्ञेय
तरफ लक्ष वखतेय साधकने टकी ज रहे छे. पण साधकने परज्ञेय तरफ उपयोग वखते
पूरी वीतरागता नथी, एटले राग अने विकल्प छे. परज्ञेय तरफ उपयोग जाय ने
संपूर्ण वीतरागता होय एम न बने, त्यां रागनो अवश्य सद्भाव छे. पण ते
भूमिकामां जेटली वीतरागता थई छे तेटली तो त्यारे पण टकी रहे छे; जेमके चोथा
गुणस्थाने परलक्ष वखते पण अनंतानुबंधी राग–द्वेष तो थता ज नथी; छठ्ठा गुणस्थाने
परलक्ष वखते त्रण कषायो (संज्वलन सिवायना) तो थता ज नथी, एटली
वीतरागता टकी रहे छे. केवळी भगवान परनेय जाणे छे पण तेमने उपयोग परमां
मूकवो पडतो नथी, स्वमां ज उपयोग लीन छे.
(१९) प्र: पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ ने रूपातीत–एम धर्मध्यानना जे चार प्रकार छे,
तेमां केटला सविकल्प छे ने केटला निर्विकल्प छे?
उ: परमार्थे तो चारे प्रकारना धर्मध्यान निर्विकल्प छे, केमके ज्यारे विकल्प
छूटीने उपयोग स्वमां थंभे त्यारे ज खरूं धर्मध्यान कहेवाय. पिंडस्थ एटले देहमां