वर्ष २२: अंक: अषाड २४९१ : july 1965
पिपासु माटेनी परब
संसारमां जेमने कांई प्रिय नथी, चैतन्यना वीतराग–
निर्विकल्प आनंदरसना जेओ प्यासी छे, जेमने रागनी के
पुण्यनी पिपासा नथी एवो परमानंदना पिपासु भव्य जीवोने
माटे संतोए शास्त्रोमां परम आनंदना धोध वहेवडाव्या छे.
वाह, संतोए तो परम आनंदना परब मांडया छे. जेम भर
उनाळामां तृषातूर माटे ठंडा पाणीनां के मधुर शरबतना
परब मंडाया होय ने तरस्या जीवो त्यां आवीने प्रेमथी तेनुं
पान करे, ने तेमनुं हृदय तृप्त थाय, तेम संसारअरण्यमां
आकुळतारूपी भर उनाळामां रखडी रखडीने थाकेला जीवने
माटे भगवानना समवसरणमां अने संतोनी छायामां
चैतन्यना वीतरागी आनंदरसना परब मंडाया छे; त्यां
परमानंदना पिपासु भव्य जीवो जिज्ञासाथी–प्रेमथी आवीने
शुद्धात्माना अनुभवरूप अत्यंत मधुर अमृतरसनुं पान करीने
तृप्त थाय छे. अरे, क््यां नवमी ग्रैवेयकथी मांडीने नरक सुधी
चारे गतिनां दुःखोनो दावानळ! ने क््यां आ चैतन्यना
अनुभवरूप सुखना वेदननी शांति! अरे, चैतन्यना परम
आनंदना अनुभव वगर बधुंय दुःखरूप लागे छे. त्यांथी
भयभीत थईने जे चैतन्यसुखने माटे झंखे छे एवो जीव
शुद्धात्माना अनुभव तरफ जाय छे. पंचपरमेष्ठीनी भक्ति अने
शुद्ध आत्माना रत्नत्रय ज तेने प्रियमां प्रिय छे; एवा जीवने