: २ : आत्मधर्म : अषाड :
ज्ञा नी नी स ह ज वै रा ग्य
प रि ण ति
अहा, अतीन्द्रिय सुखथी भरेलो स्वपदार्थ जेने सुंदर लागे तेने जगतना
कोई पदार्थमां सुंदरता न लागे, एटले ज्ञानीने बीजे क््यांय गमे नहीं.
सम्यग्द्रष्टिने अतीन्द्रिय आत्मसुखनो स्वाद आवी गयो छे, तेथी बाह्यविषयोना
सुख के जे आत्माना स्वभावथी प्रतिकूळ छे–तेमां धर्मीने रस आवतो नथी. अज्ञानीने
चैतन्यसुखना रसनी तो खबर नथी एटले तेने रागनो अने तेना फळरूप
विषयसुखनो रस छे.
धर्मी कदाच गृहस्थ होय–चक्रवर्ती होय, छतां चैतन्यसुखना स्वादथी विपरीत
एवा विषयसुखोमां तेने रस नथी. अंतरना चैतन्यसुखनी गटागटी पासे
विषयसुखोनी आकुळता तेने विष जेवी लागे छे. एटले ते तो ‘सदन निवासी तदपि
उदासी’ छे.
अज्ञानी कदाच त्यागी थयो होय, छतां चैतन्यसुखथी विपरीत एवा
विषयसुखनी रुचि तेने ऊंडे ऊंडे पडी ज छे, केमके जेने रागनी रुचि छे तेने तेना
फळनी पण रुचि छे, ने चैतन्यना सुखना स्वादनी तेने खबर नथी. रागनुं फळ तो
विषयो छे; रागनी जेने प्रीति होय तेने विषयोनी प्रीति केम छूटे?
अहा, अतीन्द्रिय आनंदना अनुभव सहित जे सम्यग्ज्ञान थयुं तेमां
विषयसुखोनी प्रीति केम होय? ए विषयो तो आत्माना वेरी छे. अनाकूळ स्वाद अने
आकुळता बंने एकबीजाथी विरुद्ध छे. जे ज्ञान आकुळताथी छूटीने चैतन्यना निराकूळ
सुखने न वेदे ते ज्ञान शुं कामनुं?–ते ज्ञान खरेखर ज्ञान नथी पण अज्ञान छे.
प्रश्न–: बाह्य भोगो छूटी जाय तो ज ज्ञान कहेवाय?
उत्तर:– बाह्यभोग तो अविरत समकितीने होई शके. परंतु तेमां सुखबुद्धि नथी.
चैतन्यसुख सिवाय बीजे क््यांय पोतानुं सुख भासतुं नथी. बाह्यभोगमां जेने सुख
भासे तेने ज्ञान नथी. मुनिदशा थाय त्यारे तो अस्थिरतानोय राग छूटी जाय, त्यां
बाह्यभोगो संयोगरूपे पण होता नथी, त्यां तो अतीन्द्रिय आनंदनो उपभोग घणो
वधी गयो छे. अहा, चैतन्यना अनुभवरूप ज्ञानकळा अपूर्व छे, ए ज्ञानकळा जेने
प्रगटी तेनो वैराग्य जगतमां अलौकिक छे. तेथी कहे छे के–