: अषाड : आत्मधर्म : ३ :
ज्ञानकला जिसके घट जागी, ते जगमांही सहज वैरागी;
ज्ञानी मगन विषयसुखमांही, यह विपरीत, संभवे नांही.
अहा, जेने स्व–पदार्थ सुंदर लागे तेने जगतना कोई पदार्थमां सुंदरता न लागे;
जेने पर संयोगमां क््यांय सुंदरता लागे छे तेने स्व–पदार्थ सुंदर लाग्यो नथी. स्वभाव
अने संयोग बंनेनी रुचि एकसाथे रही शके नहि. ज्ञानीने आत्मा सिवाय बीजा कोई
विषयो गमता नथी, बधेयथी ते उदास–उदास छे. तेने निज शुद्धात्माना संवेदननी परम
प्रीति छे, ने बाह्य विषयो प्रत्ये तीव्र वैराग्य छे. ज्ञानीनी आवी सहज ज्ञान–वैराग्य
परिणति अलौकिक छे.
लाख वातनी वात
लाखो प्रकारनी वात शास्त्रोमां वर्णवी होय पण ते बधानुं मूळ तात्पर्य ए छे के
निजात्मानुं शुद्धस्वरूप जाणीने, जगतना बधा दंड–फंद तोडीने, तेनुं ध्यान करवुं.
मंदराग करवा छतां अने शास्त्र भणतर करवा छतां जे जीव विकल्प छोडतो
नथी अने परिणतिने अंतरस्वरूपमां वाळतो नथी ते जीवने मूर्ख अने जड कह्यो छे.
शास्त्र भणवानुं तात्पर्य तो ए हतुं के स्वरूपनी सावधानी करीने तेने ध्याववुं. ए कार्य
जे नथी करतो ने शास्त्रना शब्दोथी संतुष्ट छे ते जीव कर्मथी छूटतो नथी.
शास्त्रभणतद्वारा ग्रहण तो आत्मानुं करवानुं छे, शास्त्रोनो उपदेश पण ए ज छे, एने
बदले रागमां ज जे रोकाणो, शास्त्रभणतरना विकल्पमां ज सर्वस्व मानीने रोकाणो ते
जडबुद्धि छे. मूळ चैतन्यतत्त्व तो शरीरथी ने विकल्पथी पार छे; विकल्पने ओळंगीने ज
ए प्रतीतमां आवे छे. एवी प्रतीत जे नथी करतो ते जड छे.
आत्मा तो चेतन छे, तेने अहीं जड केम कह्यो?
आत्मा चैतन्यस्वरूप छे, तेना चैतन्यस्वरूपने भूलीने रागमां ने जडमां
एकत्वबुद्धि करीने जे अटक्यो तेणे आत्माने आत्मापणे न मान्यो पण जडपणे मान्यो
माटे तेने जड कह्यो. जड एटले मुर्ख, अज्ञानी; चैतन्यना चैतन्यपणानी जेने खबर
नथी ते जड छे. बधाय शास्त्रोनुं तात्पर्य ए छे के देहादिथी भिन्न आत्मतत्त्वने जाणीने
तेने अनुभवमां लेवुं. आ परमात्मप्रकाशकना हिन्दी अर्थो पं. दौलतरामजीए कर्या छे;
छहढाळा पण तेमणे रची छे; तेमां कहे छे के –
लाख बातकी बात यह निश्चय उर आनो,
तौर सकल जग दंद–फंद निजआतम ध्यावो,