विकल्प आवशे, पण तारुं लक्ष तो शुद्धात्मा उपर
राखजे, विकल्पने साधन मानीने तेमां अटकीश नहीं.
स्वानुभूति विकल्पवडे थती नथी, शुद्धात्मा सिवाय
बीजुं बधुं स्वानुभूतिथी बहार छे.
मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलंब
तदपि परममर्थं चिचमत्कारमात्रं
परविरहितमंत पश्यतां नैष किंचित्।।५।।
एटलुं तो कहेवुं ज पडे के ‘ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूप जीव छे’–आटलो व्यवहार छे. देहनी
क्रिया करे ते जीव के राग करे ते जीव–एवी वात न लीधी. ‘ज्ञान ते जीव’ एवी वात
लीधी, ने ए व्यवहार पण स्वानुभव वखते छूटी जाय छे.–एम कहेशे. प्रथम आत्माना
अनुभवने माटे तेनुं स्वरूप जाणवानी जेने जिज्ञासा थई छे तेवो जीव ज्यारे पूछे के
‘प्रभो, आत्मानुं स्वरूप शुं छे?’ त्यारे श्रीगुरु तेने समजाववा अभेद आत्मामां भेद
उपजावीने व्यवहारथी कहे छे के ज्ञान–दर्शन, चारित्रस्वरूप आत्मा छे. ते
अनुभववायोग्य छे. कोण अनुभववा– योग्य छे? आत्मा अनुभववायोग्य छे, कांई
गुणभेद