Atmadharma magazine - Ank 261
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : अषाड :
स्वानुभूतिमां
व्यवहार नथी
स्वानुभूतिनी रीत बतावीने संतो कहे छे के हे
भाई! स्वानुभव तरफ जतां वच्चे व्यवहार आवशे,
विकल्प आवशे, पण तारुं लक्ष तो शुद्धात्मा उपर
राखजे, विकल्पने साधन मानीने तेमां अटकीश नहीं.
स्वानुभूति विकल्पवडे थती नथी, शुद्धात्मा सिवाय
बीजुं बधुं स्वानुभूतिथी बहार छे.
निर्विकल्प जीववस्तु ज्ञानगम्य छे, तेना अनुभवमां व्यवहारनुं अवलंबन
नथी;–ए वात आचार्यदेव कहे छे
व्यवहरणनयः स्यात्यधपि प्राक्पदव्या
मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलंब
तदपि परममर्थं चिचमत्कारमात्रं
परविरहितमंत पश्यतां नैष किंचित्।।५।।
निर्विकल्प जीववस्तु छे, तेनो अनुभव ते तो निश्चय छे. पण ते निर्विकल्प जीव–
वस्तुनो उपदेश करवो होय त्यारे तेमां गुणगुणीभेद पाडीने कहेवुं पडे, ओछामां ओछुं
एटलुं तो कहेवुं ज पडे के ‘ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूप जीव छे’–आटलो व्यवहार छे. देहनी
क्रिया करे ते जीव के राग करे ते जीव–एवी वात न लीधी. ‘ज्ञान ते जीव’ एवी वात
लीधी, ने ए व्यवहार पण स्वानुभव वखते छूटी जाय छे.–एम कहेशे. प्रथम आत्माना
अनुभवने माटे तेनुं स्वरूप जाणवानी जेने जिज्ञासा थई छे तेवो जीव ज्यारे पूछे के
‘प्रभो, आत्मानुं स्वरूप शुं छे?’ त्यारे श्रीगुरु तेने समजाववा अभेद आत्मामां भेद
उपजावीने व्यवहारथी कहे छे के ज्ञान–दर्शन, चारित्रस्वरूप आत्मा छे. ते
अनुभववायोग्य छे. कोण अनुभववा– योग्य छे? आत्मा अनुभववायोग्य छे, कांई
गुणभेद