: ६ : आत्मधर्म : अषाड :
वस्तुनुं शुद्धस्वरूप परम उत्कृष्ट उपादेय छे, ने द्रव्यकर्म–भावकर्म तथा नोकर्मथी
रहित छे. आम परभावथी रहित एवी परमवस्तुने अंतरमां देखवी–अनुभववी ते ज
परमार्थ छे; एवी परमार्थ अनुभूति ते ज मोक्षमार्ग छे. सम्यग्दर्शन पण आवी
अनुभूतिथी प्रगटे छे. भेद–विकल्परूप व्यवहार ते कांई परमार्थ वस्तु नथी, ते कांई
उपादेयवस्तु नथी, तेनो आश्रय कांई मोक्षमार्गमां नथी. शुद्धनय एटले निर्विकल्प
वस्तु, तेना आश्रये मोक्षमार्ग छे. शुद्धनयनो आश्रय ते ज ‘नयातिक्रान्त’पणुं छे, केमके
ते शुद्धनय बंने नयोना विकल्पथी पार छे. आम समजावीने आचार्यदेव कहे छे के हे
जीव! तारा शुद्धआत्मा सिवाय बीजुं बधुंय स्वानुभूतिथी बहार छे; माटे शुद्धात्मा
सिवाय क््यांय पण बीजे आश्रय मानीने अटकीश मा.
जुदो.....जुदो....ने जुदो
आत्मा अमूर्तिक चैतन्यमूर्ति छे, तेनाथी आ
जड पुद्गलमय देह भिन्न छे. चैतन्यमूर्ति आत्माथी
आ अचेतन देह जुदो ज हतो, जुदो ज छे, ने जुदो
ज रहेशे. जुदो.... जुदो...ने जुदो....त्रणेकाळ जुदो!
चेतनने अने जडने एकमेकपणुं कदी छे ज नहि, बंने
त्रिकाळ जुदां ज छे. अरे जीव! जडथी भिन्न एवुं मारुं
चेतनस्वरूप छे–एवी भिन्नतानो बोध तो कर.
जीवनमां भिन्नतानो बोध कर्यो हशे तो देहवियोग
टाणे चैतन्यना लक्षे समाधि रहेशे. जेने जडनी
भिन्नतानुं भान नथी ते तो देहमां ने रागमां
एकत्वबुद्धिथी भींसाई जशे. भाई! जडथी ते
विकारथी हुं जुदो चैतन्यमूर्ति छुं–एवुं भान करीने
जीवनमां तेनी भावना तो कर. ए भिन्नतानी
भावनाथी आत्मामां एकताना जोरे आनंदमां
मगशुल थईने उत्तम समाधिमरण थशे.
(प्रवचनमांथी...नियमसार गा. ९२)