Atmadharma magazine - Ank 262
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : आत्मधर्म : ११ :
शुद्धजीवस्तुने जाणनारुं ज्ञान विकल्पना अनुभवमां अटके नहि, ए तो विकल्प वखतेय
एनाथी पार शुद्धजीववस्तुने प्रकाशमान देखे छे.–आ ज सम्यग्दर्शन छे.
पर्यायमां रागादि विकल्प छे, नवतत्त्वना विकल्प छे, पण ते विकल्पना
अनुभववडे कांई सम्यग्दर्शन थतुं नथी. सम्यग्दर्शन तो शुद्धआत्मवस्तुना अनुभवरूप
छे. अजीव वस्तु देह–मन–वाणी वगेरेनुं तो जीवमां अस्तित्व ज नथी, एटले तेनी तो
वात ज शुं? अहीं तो जीवनी पर्यायमां जेनुं अस्तित्व छे एवा विकल्प, ते पण
शुद्धआत्माना अनुभवथी बहार छे,–एम बताव्युं छे. बंने पडखां जाणीने शुद्धस्वभाव
तरफ ढळवुं ने तेने अनुभवमां लेवो ते मोक्षमार्ग छे. चेतनालक्षणवाळो जीव–एवो
गुणभेदनो विकल्प पण शुद्धवस्तुना अनुभवमां नथी; शुद्धवस्तुनो अनुभव निर्विकल्प
छे, तेनी प्रतीत निर्विकल्प छे, तेनुं ज्ञान पण विकल्पथी जुदुं एटले निर्विकल्प छे. जेटला
सविकल्पभावो छे ते कोई स्वानुभवमां नथी एटले ते मोक्षमार्गरूप नथी. माटे हे
जीवो! शुद्धजीववस्तुने पर्यायेपर्याये विकल्पथी भिन्न अनुभवो.
अनादिकाळमां पूर्वे जेनो अनुभव नथी कर्यो एवा शुद्धआत्माना अनुभवनी
आ वात छे. जीवे अज्ञानभावे अनादिथी विकल्पनो ज अनुभव कर्यो छे, पोतानी
शुद्धवस्तु जेवी छे तेवी विकल्प वगर तेणे कदी अनुभवी नथी.–आवा अनुभव वगर
सम्यक्त्व थाय नहि. ते अनुभव केम थाय तेनी आ वात छे. शुद्धवस्तु एवी नथी के
विकल्पमां ते आवी जाय. आवी शुद्धवस्तुने अनुभवी–अनुभवीने परमात्मपद
साधनारा जीवो पण जगतमां अनादिथी थता आवे छे. शुद्धवस्तुनो स्वानुभव करीने
तेनी रीत संतोए बतावी छे; विकल्पजाळमांथी शुद्धचैतन्यवस्तुने बहार काढीने जुदी
बतावी छे. जेम सुवर्णपाषाणमां जो सुवर्णने जुओ तो पत्थरथी जुदुं सोनुं छे, तेम
नवतत्त्वमां जो विकल्पने न जोतां शुद्धद्रष्टिथी जुओ तो आत्मा विकल्प वगरनो
शुद्धचैतन्यपणे प्रकाशमान छे.
ए ज रीते उत्पाद–व्यय–धु्रवतामां पण शुद्धद्रष्टिथी आवो एकरूप शुद्धआत्मा ज
प्रकाशमान छे. उत्पाद–व्यय–धु्रव आत्मामां नथी–एवुं नथी, परंतु ते उत्पाद–व्यय–
धु्रवना भेदना विकल्पमां रोकातां शुद्धवस्तुनी अनुभूति थती नथी; शुद्ध वस्तुनी
अनुभूतिना काळे उत्पाद–व्यय–धु्रवना विकल्पो होता नथी; उत्पाद–व्यय–धु्रव तो होय छे
पण तेना विकल्पो नथी होता; जेम स्वानुभव वखते य जीवने संवर–निर्जरारूप
परिणमन तो छे, पण ते संवर–निर्जराना विकल्प नथी. आ रीते स्वानुभवथी वस्तुने
जोतां समस्त भेद–विकल्प जूठा छे–असत् छे.
सम्यक्त्वनी उत्पत्तिना प्रसंगमां कोई विकल्प होता नथी, त्यां तो शुद्धवस्तुनी
स्वानुभूति ज छे. भाई, आवी वस्तु तारा अंतरमां विद्यमान छे, ते विद्यमान वस्तुना
अनुभवमां विकल्पनो प्रवेश नथी, एटले तेनुं अविद्यमानपणुं छे.