एकरूप वस्तु अनुभवमां नथी आवती, विकल्प मटतो नथी; माटे कहे छे के भेदने
देखवाथी शुद्ध आत्मानुं सम्यग्दर्शन थतुं नथी. एकाकार थईने शुद्धवस्तुने अभेदपणे–
तेमां एकाग्र थईने देखतां ज सम्यग्दर्शन थाय छे. एकवार स्वानुभवथी आवी प्रतीत
थई पछी सविकल्पकाळे पण ते प्रतीत खसती नथी. छतां पछी पण मोक्षमार्गमां
अभेद–स्वानुभववडे आगळ वधाय छे, ने केवळज्ञान थाय छे.
स्वानुभूति के सम्यग्दर्शन थतुं नथी. समस्त विकल्पोथी जुदी ज ज्ञानज्योत प्रकाशे छे,
ते ज स्वानुभूति छे. स्वानुभव वगर अज्ञानी जीव नवतत्त्वना विकल्पमां संतायेली
आ ज्ञानज्योतिने शोधी शकतो न हतो; विकल्पजाळमां तन्मय थईने पोते पोताना
शुद्धस्वरूपने संताडी दीधुं हतुं.–ढांकी दीधुं हतुं, तेने अहीं खुल्लुं करीने सन्तोए देखाडयुं
छे. ‘वाह!
भरी दीधो छे...एकलो शुद्धात्माना अनुभवनो अध्यात्मरस घूंटयो छे. आ समयसार
एटले भरतक्षेत्रनो भगवान...ने एनो वाच्य ‘भगवान समयसार’ अंतरमां छे.
अनुभव वस्तु जुदी छे ने विकल्प वस्तु जुदी छे. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एटलोय विकल्प
स्वानुभवमां समाय नहि. स्वानुभवमां आखो शुद्ध आत्मा समाय, पण विकल्पनो एक
कणियो पण एमां न समाय. चोथा गुणस्थाने सम्यक्त्वमां आवी वस्तु अनुभवमां
आवी जाय छे, ने त्यारे ज मोक्षमार्गनी धारा शरू थाय छे.
आ वात छे. आवो अनुभव करवो ते सिद्धांतनो सार छे, ते ज आत्मानुं हित छे.