सळंगपणे टकी रहे छे ते गतांकना लेखमां बताव्युं.
हवे सम्यग्द्रष्टि पण क््यारेक कयारेक स्वरूपनुं ध्यान
करे छे; ते सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा निर्विकल्प आत्मध्यान
कई रीते करे छे तथा स्वरूपनुं चिंतन कया प्रकारे करे
छे, स्वरूपनुं चिंतन करतां शुं थाय छे, अने जिज्ञासुने
पण स्वरूपना ध्यान माटे केवो उद्यम ने केवी पूर्व
विचारणा होय–ते संबंधी आ लेख दरेक मुमुक्षुने
मननीय छे.
जाणे, पछी परनो विचार पण छूटी जाय अने केवळ स्वात्मविचार ज रहे छे; त्यां
निजस्वरूपमां अनेक प्रकारनी अहंबुद्धि धारे छे, ‘हुं चिदानंद छुं, शुद्ध छुं, सिद्ध छुं,’
ईत्यादि विचार थतां सहज ज आनंदतरंग ऊठे छे, रोमांच थाय छे; त्यारपछी एवा
विचारो पण छूटी जाय अने स्वरूप केवळ चिन्मात्ररूप भासवा लागे, त्यां सर्व
परिणाम ते रूप विषे एकाग्र थई प्रवर्ते; दर्शन–ज्ञानादिकना वा नय–प्रमाणादिना
विचार पण विलय थई जाय. सविकल्प–चैतन्यस्वरूप वडे जे निश्चय कर्यो हतो तेमां ज
व्याप्य–व्यापकरूप थई एवो प्रवर्ते के ज्यां ध्याता–ध्येयपणुं दूर थई जाय, अने आवी
दशानुं नाम निर्विकल्पअनुभव छे.”
निर्विकल्प– स्वानुभवनो उद्यम करे छे ते पण आ ज प्रकारे भेदज्ञान अने
स्वरूपचिंतनना अभ्यास– द्वारा परिणामने निजस्वरूपमां तल्लीन करीने स्वानुभव करे
छे. आ निर्विकल्प अनुभव