: १४ : आत्मधर्म : श्रावण :
वखते आत्मा पोते पोतामां व्याप्य–व्यापकपणे एवो तल्लीन वर्ते छे, एटले के द्रव्य–
गुण–पर्यायनी एवी एकता थाय छे, के ध्याता–ध्येयना भेद पण तेमां रहेता नथी;
आत्मा पोते पोतामां लीन थईने पोतानो स्वानुभव करे छे. स्वानुभवना परम
आनंदनो भोगवटो छे पण तेनो विकल्प नथी. एकवार आवो निर्विकल्पअनुभव जेने
थयो होय तेने ज निश्चय सम्यक्त्व जाणवुं. ए अनुभवनी रीत अहीं बतावे छे.
अहीं सम्यग्द्रष्टि कई रीते निर्विकल्प अनुभव करे छे ते बताव्युं छे, तेमना
उदाहरण प्रमाणे बीजा जीवोने पण निर्विकल्प अनुभव करवानो ए ज उपाय छे–एम
समजी लेवुं.
सम्यग्द्रष्टिने शुभाशुभ वखते सविकल्पदशामां सम्यक्त्व कया प्रकारे वर्ततुं होय
छे ते समजाव्युं; हवे कहे छे के ‘ते सम्यग्द्रष्टि कदाचित स्वरूपध्यान करवानो उद्यमी थाय
छे.’–चोथा गुणस्थाने कांई सम्यग्द्रष्टिने वारंवार स्वरूपध्यान नथी होतुं, पण क््यारेय
शुभाशुभ प्रवृत्तिथी दूर थई, शांत परिणाम वडे स्वरूपनुं ध्यान करवानो उद्यम करे छे,
जे स्वरूपनो अपूर्व स्वाद स्वानुभवमां चाख्यो छे तेने फरी फरी अनुभववा माटे ते
उद्यम करे छे. त्यारे प्रथम तो स्व–परना स्वरूपनुं भेदविज्ञान करे एटले के पहेलां जे
भेदज्ञान करेलुं छे तेने फरी चिंतनमां ल्ये; आ स्थूळ जड देहादि तो माराथी स्पष्ट भिन्न
छे, तेना कारणरूप अंदरना सूक्ष्म द्रव्य कर्मो ते पण आत्मस्वरूपथी अत्यंत जुदा छे,
बंनेनी जात ज जुदी छे; हुं चैतन्य ने ए जड, हुं परमात्मा ने ए परमाणु–एम बंनेनी
भिन्नता छे, ने भिन्नता होवाथी ते कर्म मारुं कांई करे नहि. हवे अंदर आत्मानी
पर्यायमां ऊपजता जे राग–द्वेष–क्रोधादि भावकर्मो तेनाथी पण मारुं स्वरूप अत्यंत जुदुं
छे; मारा ज्ञानस्वरूपनी ने ए रागादि परभावोनी जात जुदी छे; रागनुं वेदन तो
आकुळतारूप छे ने ज्ञाननुं वेदन तो शांतिमय छे.–आम घणा प्रकारे द्रव्यकर्म–नोकर्म ने
भावकर्मथी पोताना स्वरूपनी भिन्नताने चिंतवे. ए बधायथी भिन्न
चैतन्यचमत्कारमात्र ज हुं छुं–एम विचारे. जुओ, आवा वस्तुस्वरूपना निर्णयमां ज
जेनी भूल होय तेने तो स्वरूपना ध्याननो साचो उद्यम उपडे नहि. केमके जेनुं ध्यान
करवानुं छे तेने पहेलां ओळखवुं तो जोईए ने! ओळख्या वगर ध्यान कोनुं? ए
प्रमाणे स्व–परनी भिन्नताना विचारथी परिणामने जराक स्थिर करे पछी परना विचार
छूटीने केवळ निजस्वरूपना ज विचार रहे. जे स्वरूप पहेलां अनुभव्युं छे अथवा जे
स्वरूप निर्णयमां लीधुं छे तेनो अत्यंत महिमा लावी लावीने तेना विचारमां मनने
एकाग्र करे छे. परद्रव्योमांथी ने परभावोमांथी तो अहंबुद्धि छोडी छे ने निजस्वरूपने
ज पोतानुं जाणीने तेमां ज अहंबुद्धि करी छे. हुं चिदानंद छुं, हुं शुद्ध छुं, हुं सिद्ध छुं, हुं
सहज सुखस्वरूप छुं, अनंत शक्तिनो निधान हुं छुं, सर्वज्ञ स्वभावी हुं छुं–ईत्यादि
प्रकारे पोताना निजस्वरूपमां ज अहंबुद्धि करी करीने तेने चिंतवे छे. नियमसारमां प्रभु
कुंदकुंदस्वामी कहे छे.