वळी सौख्यमय छे जेह ते हुं–एम ज्ञानी चिंतवे. (९६)
निजभावने छोडे नहीं, परभाव कंई पण नव ग्रहे,
जाणे जुए जे सर्व, ते हुं–एम ज्ञानी चिंतवे (९७)
पण आवी निजात्मभावनाथी प्रगटे छे. सम्यग्दर्शन थया पछी, तेम ज सम्यग्दर्शन
करवा माटे पण आवी ज भावना अने आवुं चिंतन कर्तव्य छे. ‘सहज शुद्धात्मानी
अनुभूति एटलो ज हुं छुं, मारा स्वसंवेदनमां आवुं छुं ए ज हुं छुं–आवा सम्यक्
चिंतनमां सहज ज आनंदतरंग ऊठे छे ने रोमांच थाय छे...
निर्विकल्प– अनुभूतिनो आनंद नथी पण स्वभाव तरफना उल्लासनो आनंद छे, शांत
परिणामनो आनंद छे; अने तेमां स्वभाव तरफना अतिशय प्रेमने लीधे रोमांच थाय
छे. रोमांच एटले विशेष उल्लास; स्वभाव तरफनो विशेष उत्साह; जेम संसारमां
भयनो के आनंदनो कोई विशिष्ट खास प्रसंग बनतां रोमरोम उल्लसी जाय छे तेने
रोमांच थयो कहेवाय, तेम अहीं स्वभावना निर्विकल्प अनुभवना खास प्रसंगे धर्मीने
आत्माना असंख्य प्रदेशे स्वभावना अपूर्व उल्लासनो रोमांच थाय छे. पछी
चैतन्यस्वभावना रसनी उग्रता वडे ए विचारो (विकल्पो) पण छूटी जाय ने परिणाम
अंतर्मग्न थतां केवळ चिन्मात्रस्वरूप भासवा लागे, एटले के बधा परिणाम स्वरूपमां
एकाग्र थईने वर्ते, उपयोग स्वानुभवमां प्रवर्ते, त्यारे निर्विकल्प आनंददशा
अनुभवाय छे. त्यां दर्शन–ज्ञान–चारित्र संबंधी के नयप्रमाण वगेरे संबंधी कोई विचार
होतो नथी, सर्वे विकल्पो विलय पामे छे. अहीं स्वरूपमां ज व्याप्य–व्यापकता छे एटले
द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणे एकमेक–एकाकार अभेदपणे अनुभवाय छे. अनुभव करनारी
पर्याय स्वरूपमां व्यापी गई छे, जुदी रहेती नथी. परभावो अनुभवथी बहार रही
गया पण निर्मळ पर्याय तो अनुभूतिमां भेगी भळी गई.
अतीन्द्रिय निर्विकल्प–अनुभूति थई, परम आनंद थयो. आवी अनुभूतिमां प्रतिक्रमण,