: श्रावण : आत्मधर्म : १७ :
मूकीने ओगाळे त्यारे ज तेने साकरना मीठा स्वादनो अनुभव थाय छे; तेम कोई
सज्जन एटले के संत धर्मात्मा–सम्यग्द्रष्टि निर्विकल्प स्वानुभवमां अतीन्द्रिय आनंदनो
मीठो स्वाद लेता होय, त्यां बीजा जीवो जिज्ञासापूर्वक ए अनुभवी धर्मात्माने देखे ने
तेमनी पासेथी प्रेमपूर्वक ए अनुभवनुं वर्णन सांभळे तेथी कांई तेने निर्विकल्प
अनुभूतिनो स्वाद आवी जाय नहि, ए जीव पोते शुद्धात्माने लक्षमां लई एने ज मुख्य
करी ज्यारे अंतर्मुख उपयोगवडे स्वानुभव करे त्यारे ज तेने शुद्धात्माना निर्विकल्प
अनुभवना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद वेदनमां आवे छे. आवो स्वानुभव थतां
सम्यग्द्रष्टि जाणे छे के अहा, मारी वस्तु मने प्राप्त थई. मारामां ज रहेली मारी वस्तुने
हुं भूली गयो हतो ते धर्मात्मा गुरुओना अनुग्रहथी मने प्राप्त थई. पोतानी वस्तु
पोतामां ज छे, ए निजध्यानवडे प्राप्त थाय छे, बहारना कोई रागादि भाव वडे ते प्राप्त
थती नथी एटले के अनुभवमां आवती नथी. सविकल्पद्वारवडे निर्विकल्पमां आव्यो–
एम उपचारथी कहेवाय छे. स्वरूपना अनुभवनो उद्यम करतां करतां प्रथम तेना
सविकल्पविचारनी धारा उपडे छे, तेमां सूक्ष्म राग अने विकल्पो होय छे, पण ते रागने
के विकल्पने साधन बनावीने कांई स्वानुभवमां पहोंचातुं नथी, रागने अने विकल्पोने
ओळंगीने सीधो आत्मस्वभावने अवलंबीने तेने ज साधन बनावे त्यारे ज आत्मानो
निर्विकल्पस्वानुभव थाय छे; ने त्यारे ज जीव कृतकृत्य थाय छे. शास्त्रोए एनो अपार
महिमा गायो छे.
(सविकल्पमांथी निर्विकल्पअनुभव थवानी जे वात करी ते संबंधमां हवे
शास्त्राधार आपीने स्पष्टता करशे.) पं. टोडरमल्लजीनी रहस्यपूर्ण चिठ्ठि उपरना
प्रवचनोमांथी.
‘हुं ज्ञाता छुं–एम ज्ञानसन्मुख थईने न परिणमतां,
रागादिनो कर्ता थईने परिणमे छे ते जीव क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता
नथी. क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता तो ज्ञायकसन्मुख रहीने रागादिने
पण जाणे ज छे. तेने स्वभावसन्मुख परिणमनमां शुद्धपर्याय ज
थती जाय छे.
आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे तेने लक्षमां लईने तुं विचार के
आ तरफ हुं ज्ञायक छुं–मारो सर्वज्ञस्वभाव छे–तो सामे
ज्ञेयवस्तुनी पर्याय कमबद्ध ज होय के अक्रमबद्ध? पोताना
ज्ञानस्वभावने सामे राखीने विचारे तो तो आ क्रमबद्धपर्यायनी
वात सीधीसट बेसी जाय तेवी छे; पण ज्ञानस्वभावने भूलीने
विचारे तो एक पण वस्तुनो निर्णय थाय तेम नथी.’