: श्रावण : आत्मधर्म : २१ :
उत्तर:– ना; कोई मुनि आहारकशरीर–नामकर्म बांधे पण तेना उदयनो एटले के
आहारक शरीरनी रचनानो प्रसंग कदी न आवे, वच्चेथी ज ते प्रकृतिनो छेद करीने मोक्ष
पामी जाय, परंतु तीर्थंकरनामकर्ममां एवुं न बने, तीर्थंकरनामकर्म तो जेने बंधाय ते
जीवने नियमथी ते उदयमां आवे ज.
आहारकशरीर–प्रकृति सातमा के आठमा गुणस्थाने बंधाय छे ने छठ्ठा गुणस्थाने
उदयमां आवे छे. कोई जीव क्षपकश्रेणी वखते आहारकशरीर बांधे ने सीधो केवळज्ञान
पामे, छठ्ठेस्थाने पाछो आवे ज नहि एटले तेने आहारकशरीरनी रचनानो प्रसंग न
आवे. छठ्ठा गुणस्थाने आहारकशरीरनी रचनावाळा मुनिवरो एक साथे वधुमां वधु
(प४) चोपन होय छे.
नवतत्त्व अने शुद्धआत्मा
(३३) प्रश्न:– नवतत्त्वोने जाणवा ते सम्यग्दर्शन छे, के शुद्ध जीवने जाणवो ते
सम्यग्दर्शन छे?
उत्तर:– नवतत्त्वोने यथार्थपणे जाणतां तेमां शुद्धजीवनुं ज्ञान पण भेगुं आवी ज
जाय छे; ने शुद्ध जीवने जाणे तो तेने नवतत्त्वनुं पण यथार्थ ज्ञान जरूर होय छे.–आ
रीते, नवतत्त्वनुं ज्ञान ते सम्यक्त्व कहो के शुद्ध जीवनुं ज्ञान ते सम्यक्त्व कहो,–ते बंने
उपर लक्ष नथी होतुं, त्यां तो शुद्ध जीव उपर ज उपयोगनी मीट होय छे; ने ‘आ हुं’
एवी जे निर्विकल्पप्रतीत छे तेना ध्येयभूत एकलो शुद्धआत्मा ज छे.
अनुभूतिमां मननो संबंध नथी
(३४) प्रश्न:– निर्विकल्प अनुभूतिमां मननो संबंध छूटी गयो छे ए वात
केटला टका साची?
उत्तर:– सोए सो टका साची; त्यां निर्विकल्पतारूप जे परिणमन छे तेमां तो
मननुं अवलंबन जरा पण नथी, तेमां तो मननो संबंध तद्न छूटी गयो छे; पण ते
वखते अबुद्धिपूर्वक जे रागपरिणमन बाकी छे तेमां मननो संबंध छे.
सम्यग्दर्शननी विधि
(३प) प्रश्न:– नयपक्षथी अतिक्रान्त, ज्ञानस्वभावनो अनुभव करीने तेनी
प्रतीत ते सम्य–