: २४ : आत्मधर्म : श्रावण :
वि...वि...ध व...च...ना...मृ...त
(आत्मधर्मनो चालु विभाग: लेखांक ११)
(१६२) तुं जिनवर स्वामी मेरा, मैं
सेवक हूं तेरा
जिनवर स्वामी ए कोना स्वामी छे?
जे एनो सेवक छे तेना ते स्वामी छे.
जिनवरदेवनो सेवक कोण छे?
जे जीव रागने सेवे छे ते
वीतरागजिनदेवनो सेवक नथी; वीतराग
जिनदेवनो सेवक तो रागनी सेवा छोडीने
वीतरागदेव जेवा पोताना
चिदानंदस्वभावने श्रद्धामां–ज्ञानमां लईने
सेवे छे. जिनवरदेवनो साचो सेवक थवा
माटे स्वाश्रये तेमना जेवो भाव प्रगट
करवो जोईए. आवा सम्यक्भावथी जीवे
पूर्वे कदी जिनवरदेवने उपास्या नथी; तेथी
कह्युं के जीवने अनादिकाळथी सम्यक्त्व
अने जिनवरस्वामी मळ्या नथी. एकवार
पण आवा सम्यक्भावथी जिनवरदेवने जे
उपासे तेने भवभ्रमणनो अंत आवी जाय,
ने ते पोते जिनवर थाय.
(१६३) ज्ञाननो रसियो था तेनुं शरण ले
हे भाई, आ भवदुःखथी छूटवा तुं
ज्ञाननो रसियो था, ने रागनो रस छोड.
शरण तो ज्ञानमां छे. ज्ञानथी बहार कोई
बीजुं तने शरण नथी. राग मने तारशे
एम मानीश तो तुं वीतरागनो दास नथी.
वीतरागनो दास रागथी धर्म माने नहि,
रागनो आदर करे नहि, रागनुं शरण
माने नहि.
(१६४) भगवाननो भक्त थवानी
रीत
तुं तारा ज्ञानस्वभावनो स्वामी था
तो जिनदेव तारा स्वामी थाय. जो तुं
रागनो स्वामी थईश तो जिनदेव तारा
स्वामी नहि थाय, एटले के तुं जिनदेवनो
खरो भक्त नहि थई शके. भगवान कहे छे
के मारो भक्त रागनो स्वामी थाय नहि,
मारो भक्त तो वीतरागस्वभावने ज
आदरे. तारा हृदयमां तारे भगवानने
बेसाडवा होय तो रागने हृदयमांथी काढी
नांख. जेना हृदयमां राग वसे तेना मलिन
हृदयमां भगवान वसता नथी, ते
भगवाननो साचो भक्त नथी.
(१६प) तारुं साचुं घर
रे जीव! जे घरवास पापनुं स्थान
छे तेने तुं तारो वास न जाण..ए तो
भवबंधनमां बांधवानो यमनो फांसलो छे.
एने तारुं घर न जाण..तारुं स्वघर
चैतन्यधाममां छे एम तुं जाण...ने ए
स्वघरमां जईने रहे. अनुभूति वडे स्वघरमां
प्रवेश कर. ए ज तारुं साचुं घर छे.
(१६६) स्वभावनी प्राप्तिनुं साधन
भाई, तारा स्वभावनी प्राप्ति
माटे तने तारा श्रुतज्ञाननी पर्याय ए एक
ज साधन बस छे, बीजा कोई बहारना
साधननी पराधीनता नथी. तारी
श्रुतपरिणतिने अंतरमां