Atmadharma magazine - Ank 262
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 37

background image
: श्रावण : आत्मधर्म : ३ :
अरे जीव! तुं आवो परमात्मस्वरूप छो, निजस्वरूपने शुद्धनयवडे तें कदी जोयुं
नथी, आपूर्ण एटले के समस्त प्रकारे पूर्ण एवो पोतानो आत्मा छे, ते
संकल्पविकल्पोवडे अनुभवमां न आवे; तेनो अनुभव थतां तो समस्त संकल्प–विकल्पो
छूटी जाय छे. आ रीते स्वानुभवमां आवतो आत्मा निजगुणोथी परिपूर्ण ने
संकल्पविकल्पोथी खाली छे.
अरे जीव! तारा स्वतत्त्वने चूकीने अनंतकाळथी तुं परभावना पंथे भूलो
पड्यो. पण तारी शुद्ध जीववस्तु तारामां ज छे, शुद्धनयवडे तेने देख. ए आत्मानो
निजभाव छे; शुद्धनय ते पण आत्मानो निजभाव छे. शुद्धनयथी पोताना शुद्धात्माने
अनुभवीने आचार्यदेव आखा जगतने कहे छे के तमे पण भ्रांति छोडीने आवा
शुद्धआत्माने अनुभवो. स्वसन्मुख थईने आवो अनुभव करो. परभावोना दुःखमां
अनंतकाळ काढयो, हवे एक क्षण पण एमां न गुमावो ने स्वभावने अनुभववानो
अभ्यास करो.
प्रश्न:– आवो अनुभव करवानुं साधन शुं?
उत्तर:– एनुं साधन क््यांय बहारमां नथी, पोतानुं श्रुतज्ञान ज एनुं साधन छे.
ज्यां श्रुतज्ञान अंतरमां वळ्‌युं त्यां आवो अनुभव थाय छे. शुद्धनय कहो के
भावश्रुतज्ञान कहो ते ज स्वानुभवनुं साधन छे. स्वानुभवनुं साधन स्वानुभवथी
अभिन्न छे, स्वानुभवथी भिन्न नथी.
अहो, आ स्वानुभवनी आवी वात....ते समजावीने संतोए पंचमकाळमां
अमृत रेडयां छे. आ समयसार वडे शुद्धनयरूपी अमृतना कळश भरी भरीने
अमृतचंद्राचार्यदेवे भगवान शुद्ध आत्मानो अभिषेक कर्यो छे, स्वानुभूतिवडे आवो
अभिषेक करतां आत्मा पवित्र थाय छे एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगटे छे.
दुःखी
मारुं सुख परमां छे एवी जेनी बुद्धि छे ते
जीव, भले तेनी पासे करोडो रूपिया होय ने
मेवा–जांबु खातो होय तथा सोनाना हींडोळे
हींचतो होय तो पण आकुळताथी दुःखी ज छे.
आनंदधाम एवा स्वतत्त्वनो महिमा छोडीने
परनो महिमा कर्यो ते ज दुःख छे.
(सुखशक्तिना प्रवचनमांथी)