Atmadharma magazine - Ank 262
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : आत्मधर्म : प :
नथी तेने जैनशासननी खबर नथी, ते खरेखर जैनशासनमां आव्यो नथी. जेणे
आत्मानी अनुभूति करी तेणे समस्त जिनशासननुं रहस्य जाणी लीधुं ने ते
मोक्षमार्गमां आव्यो.
आत्मा पोते स्वभाविक सुखस्वरूप छे; पण पोतानी अनुभूति वगर ते
ईंद्रियजनित सुख–दुःखनी आकुळता भोगवी रह्यो छे. तेने पोतानी शुद्धअनुभूतिवडे
सहज–अनाकुळ सुखनो अनुभव थाय छे. अनुभवमां आवतो आत्मा अंदर ने बहार
सर्वत्र सर्वप्रदेशोमां, द्रव्यमां तेमज व्यक्त पर्यायमां ज्ञान ने आनंदथी ज भरेलो छे.
पर्याय पण आनंदथी ने ज्ञानथी भरेली छे. असंख्यप्रदेशो सर्वत्र आनंद ने ज्ञानथी
परिपूर्ण छे. असंख्य चैतन्यप्रदेशो पोते ज ज्ञान ने आनंद स्वरूप छे. सदाकाळ आवा
आत्मानो अनुभव रह्या करो–एम धर्मीनी भावना छे.
जेम बरफनो पिंड अंदर बहार सर्वत्र ठंडकथी भरेलो छे, तेम चैतन्यबरफनो
पिंड आत्मा असंख्यप्रदेशे सर्वत्र शांत–शीतळ आनंदथी भरेलो छे. द्रव्यमां तो आनंद
भरेलो छे ने ज्यां पर्याय अंतर्मुख थई त्यां ते पर्याय आनंदथी भरेली छे.–आवी
आनंदभरेली अनुभूति अमने सदा प्रगट हो.
साधकनो अपूर्व पुरुषार्थ
जेणे सम्यग्दर्शन प्रगटाववानो पूर्वे कदी नहि करेलो एवो
अनंतो सम्यक् पुरुषार्थ करीने सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं छे अने ए
रीते संपूर्ण स्वरूपनो साधक थयो छे ते जीव कोईपण संयोगमां,
भयथी, लज्जाथी लालचथी के कोईपण कारणथी असत्ने पोषण
नहि ज आपे.....ए माटे कदाच कोई वार देह छूटवा सुधीनी
प्रतिकूळता आवी पडे तोपण सत्थी च्युत नहि थाय, असत्नो
आदर कदी नहि करे. स्वरूपना साधको निःशंक अने निडर होय
छे. सत् स्वरूपनी श्रद्धाना जोरमां अने सत्ना माहात्म्य पासे
तेने कोई प्रतिकूळता छे ज नहि. जो सत्थी जरापण च्युत थाय
तो तेने प्रतिकूळता आवी कहेवाय, पण जे क्षणे क्षणे सत्मां
विशेष द्रढता करी रह्यो छे तेने तो पोताना बेहद पुरुषार्थ पासे
जगतमां कांईपण प्रतिकूळता ज नथी. ए तो परिपूर्ण सत्स्वरूप
साथे अभेद थई गयो,–तेने डगाववा त्रण जगतमां कोण समर्थ?
अहो! आवा स्वरूपना साधकने धन्य छे!!